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अनीश्वरवाद भी नास्तिकता का कारण नहीं
इसके अतिरिक्त मोक्ष के विषय में वैदिक परम्परा के दर्शन शास्त्रों का भी प्रायः यही सिद्धान्त है, केवल शब्दों का हेरफेर है। जैन दर्शन - "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" कहता है जबकि वेदोपजीवी दर्शन - "अज्ञान की आत्यन्तिक निवृत्ति" अथच दुःख की आत्यन्तिक निवृति और परमानन्द की प्राप्ति” को मोक्ष के नाम से निर्दिष्ट करते हैं ।
स्वामी दयानन्दजी ने मोक्ष का स्वरूप तो ऐसा ही बतलाया है परन्तु उन्होंने मुक्तात्मा का वापिस Par for से स्वीकार किया, यह तो वही जानें, कारण कि उनके इस कथन में कोई भी शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । वैदिक परम्परा के किसी भी दर्शन ने स्वामी जी के इस मन्तव्य का समर्थन नहीं किया । विपरीत इसके न्यायदर्शन, सांख्य और वेदान्त दर्शन के मूलसूत्रों में तथा उपनिषद् और भगवद्गीता आदि अन्य प्रमाणिक ग्रन्थों में इस मंतव्य का स्पष्ट शब्दों में प्रतिषेध किया है। इसलिये स्वामीजी का उक्तमन्तव्य अशास्त्रीय अथच मनःकल्पित ही सिद्ध होता है। इसके अलावा एक बात और है जिसकी तर्फ मैं आपका ध्यान खैंचना चाहता हूँ | स्वामीजी के लिखे हुए "ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका" नाम के ग्रन्थ से तो आप परिचित ही होंगे ? उसमें मोक्ष नाम का जो प्रकरण है उसे आप पढ़ जाइये उसमें कहीं पर भी मुक्तात्मा की पुनरावृत्ति का उल्लेख आपको नहीं मिलेगा और इसके पुनर्जन्म प्रकरण में " द्वेसृति अशृणवं " इत्यादि वेद मंत्र की व्याख्या में पितृयान और देवयान का वर्णन करते हुए आप लिखते हैं ।
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"जिसमें यह जीवात्मा माता पिता के द्वारा शरीर धारण करके पुण्य और पाप फलरूप सुख दुःख का उपभोग करता है अर्थात् पूर्वापर अनेकविध जन्मों को धारण करता है वह पितृयान है और जिसमें मोक्षरूप पद को उपलब्ध करके जन्ममरण रूप संसार से छूट जाता है वह देवयान है $ इत्यादि" इससे प्रतीत होता है कि उस समय वे मुक्ति से पुनरावर्तन नहीं मानते थे और बाद में किसी कारण वश उन्होंने इस सिद्धान्त का परित्याग कर दिया होगा जो कि युक्तिविधुर और प्रमाणशून्य है । राजन् ! कहते हुए तो संकोच होता है परन्तु क्या करूं आप पूछते हैं इसलिये कहे बिना रहा भी * क — “वाधना लक्षणं दुःखम् तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्ग:" " वीतराग जन्मादर्शनात्” [ न्याय द० १-२४-२५ । ३ - २५ ] ख—“तत्र प्राप्त विवेकस्यानावृत्ति श्रुतिः" न मुक्तस्य पुनर्बन्धयोगेऽपि अनावृत्ति श्रुतेः” [ सांख्य द०१-८३ । ६ -१७ ] ग - " अनावृत्तिः शब्दात्, अनावृत्तिःशब्दात् " [ वेदान्त द० ४-२२] घ- न सः पुनरावर्तते, न सः पुनरावर्तते " [ उपनिषद् ] च -- " यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धांमपरमंमम” [ १५- <— ] “मामुपेत्य तु कौन्तेय ! पुनर्जन्म न विद्यते " [ ८ । १६]
[ भगवद् गीता ]
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