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बीकानेर दरबार से भेट
सन्यासी महात्मा - महाराज ! सत्य कहता हूँ आज आपके मुखारविन्द से जैन दर्शन के अनेकान्त वाद का स्वरूप और उसका दार्शनिक समन्वय सुनकर मन को जितनी प्रसन्नता हुई है उसका शब्दों के द्वारा व्यक्त करना अशक्य है ! आप जितने त्यागी हैं उससे कहीं अधिक दर्शनों के प्रकांड विद्वान हैं । आपको मिलकर अपार हर्ष हुआ ।
बीकानेर दरबार - महाराज ! सबसे अधिक भाग्यशाली तो मैं हूँ जिसे न केवल आप श्री के दर्शनों काही लाभ हुआ प्रत्युत ऐसे अश्रुतपूर्व दार्शनिक विषय को आपके मुखारविन्द से सुनने का भी पुण्य
अवसर प्राप्त हुआ ।
श्री ढड्डासाहब - महाराज ! मैं अपने पुण्यसंभार की श्लाघा किन शब्दों में करूं आप जैसे परममेधावी परमत्यागी महापुरुष का मेरे यहां पधारना और स्वामीजी जैसे विद्वान् पुरुष का पदार्पण करना एवं हमारे अन्नदाता का यहां उपस्थित होना क्या मेरे लिये कम गौरव की बात है ? तीर्थङ्कर देव की साधु मुद्रा के प्रतीक रूप आप श्री की त्यागबहुल ज्ञानविभूति ने आज जिस निर्मल प्रकाश को प्रसारित किया है उसने मेरे हृदय को आलोकित करके भूरि २ सान्त्वना प्रदान की है, जिसके लिये मैं आप श्री का बहुत बहुत कृतज्ञ हूँ ।
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श्री आनन्द विजयजी - सज्जन पुरुषों का यह स्वभाव ही है कि वे साधारण व्यक्ति को भी अधिक से अधिक सम्मान देने का यत्न करते हैं। आप लोगों ने मेरे कथन को शान्ति पूर्वक सुना और उसमें
(ख) महामति कुमारिल भट्ट -
"इड् नैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम् " [ श्लो० वा० पृ० ६३३]
स्वरूप पर रूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके ।
वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्रूपं किंचत् कदाचन ||१२|| [ श्लो० वा० प्र० ४७६ ]
अर्थात् वस्तु, स्वरूप से सत् और पर रूप से असत् एवं स्वरूप पर रूप से सदसद् उभयरूप है ।
* नोट:-श्रीयुत् चांदमलजी ढड्डा श्रोसवाल जाति के अग्रगण्य और राजमान्य व्यक्ति थे। जैन होते हुए भी अन्य सम्प्रदाय के विद्वानों के अधिक सम्पर्क में श्राने तथा योग्य जैन साधुओं के सम्पर्क से अलग रहने के कारण उनका श्रद्धान जैनधर्म की अपेक्षा वैष्णव धर्म पर अधिक था । परन्तु जब से उन्हें महाराज श्री श्रात्मारामजी का सहयोग प्राप्त हुआ तब से उनके विचारों में और श्रास्था में काफी अन्तर पड़ गया। वे प्रथम केवल ठाकुरजी का ही पूजन किया करते थे । बाद में जब उनको वस्तुस्थिति का भान हुआ तो वे अपने नित्य के पूजन में श्री तीर्थंकर देव की मूर्ति की भी बड़ी श्रद्धा से चर्चा-पूजा करने लगे जो कि जीवन पर्यन्त करते रहे और जैन सिद्धान्तों से परिचय प्राप्त करने के लिये जैन ग्रन्थों का स्वाध्याय और जैन विद्वानों के समागम में भी आते रहे । "सतां संगोहि भेषजम्” । - लेखक
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