________________
श्री सिद्धाचल की यात्रा के लिये
१८५
के विशाल मन्दिर में पहुंचे । जहां प्रभु शान्तमुद्रा में विराजमान थे।
वीतराग प्रभु श्री आदिनाथ के दर्शन करते ही आप और आप के साथ आनेवाले अन्य साधुओं के मन आनन्द से विभोर हो उठे । प्रभु दर्शन का निर्निमेष दृष्टि से पान करते हुए ऐसे तल्लीन हुए कि कुछ क्षणों के लिये अपने आप को भी भूल गये । महाराज श्री आत्मारामजी ने अपने हार्द को प्रभु के सन्मुख किस रूप में व्यक्त किया है, पाठक उन्हीं के शब्दों में सुनें
अब तो पार भये हम साधो, श्री सिद्धाचल दर्श करीरे ।
आदीश्वर जिन मेहर करी अब, पाप पटल सब दूर भयोरे ॥ तनमन पावन भविजन केरो, निरखी जिनन्द चन्द सुख थयोरे ॥१॥ पुंडरीक प्रमुखा मुनि बहु सिद्धा, सिद्ध क्षेत्र हम जांच लह्योरे । पसु पंखी जहां छिनक में तरिया, तो हम दृढ़ विश्वास गह्योरे ॥२॥ जिन गणधर अवधि मुनि नाही, किस आगेहुँ पुकार करूंरे । जिम तिम करी विमलाचल भेट्यो, भवसागर थी नाहीं डरूंरे ॥३॥ दूर देशान्तर में हम उपने, कुगुरु कुपंथ को जाल परयोरे । श्री जिन आगम हम मन मान्यो, तब ही कुपंथ को जाल जरयोरे ॥४॥ तो तुम शरण विचारी आयो, दीन अनाथ को शरण दियोरे। जयो विमलाचल पूरण स्वामी, जन्म जन्म को पाप गयोरे ॥॥ दूर भवि अभव्य न देखे, सूरी धनेश्वर एम कटोरे। विमलाचल फर्से जो प्राणी, मोक्ष महल तिन वेग लगोरे ॥६॥ जयो जगदीश्वर तूं परमेश्वर, पूर्व नवांणु वार थयोरे ।। समवसरण रायण तले तेरो, निरखी अघ मम दूर गयोरे ॥७॥ 'श्री विमलाचल मुझ मन बसियो, मा संसार तो अन्त थयोरे । यात्राकरी मन तोष भयो अब, जन्म मरण दुःख दूर गयोरे ॥८॥ निर्मल मुनिजन जो तें तारया, तेतो प्रसिद्ध सिद्धान्ते कटोरे ।। मुझ सरिखा निन्दक जो तारो, तारक विरुद ए साच लह्योरे ॥६॥ ज्ञानहीन गुण रहित विरोधी, लम्पट धीठ कसायी खरोरे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org