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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
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अतः हे देवानुप्रिय ! इन प्रतिमाओं और इन दाढ़ाओं की अर्चा पूजा बन्दना और उपासना करना यह आपका प्रथम कर्तव्य है यही पीछे कर्तव्य है और वर्तमान तथा भविष्य में सदा के वास्ते निश्रेयस-मोक्ष साधक कार्य भी आपके लिये यही है।
तदुपरान्त सिद्धायतन में जहां पर देव छन्दक है और जिस तर्फ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं उस तर्फ जाकर सूर्याभदेव और उसके समस्त परिवार ने उनको प्रणाम किया तदनन्तर मोरपिच्छी से उन प्रतिमाओं का प्रमार्जन किया और सुगंधित जल से स्नान कराकर सुवासित वस्त्र से सुखाकर उन पर गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। उसके बाद उन प्रतिमाओं को अक्षत-अखंड देवदूष्य पहराया और उन पर फूलमाला गन्धचूर्ण वर्णवस्त्र आभरणादि चढ़ाकर बड़ी लम्बी लम्बी मालायें पहराई तथा उनके आगे पांचों वर्णों के सुगन्धि युक्त पुष्पों का पुञ्ज किया, इसके अनन्तर उन प्रतिमाओं के सन्मुख रुपहरी अखंड चावलों का स्वस्तिक तथा दर्पणादि आठ २ मंगलों का आलेखन किया। तथा वैडूर्यमय धूपदानी में सुगन्धि युक्त धूप धुखाकर प्रत्येक प्रतिमा को धूप दिया, इस प्रकार जिनेन्द्र देवों को धूप देकर नितान्त गम्भीर अर्थ वाले १०८ छन्दों के द्वारा उनकी स्तुति की "इत्यादि" ||
राजप्रश्नीय सूत्र के इन उल्लेखों से जिन प्रतिमाओं की सत्ता, उनकी पूजा और पूजा की विधि इन तीन वातों के प्रमाणित हो जाने से मूर्तिवाद की विधेयता विधिनिष्पन्नता और प्राचीनता के सिद्ध होने में कोई त्रुटि बाकी नहीं रह जाती । सिद्धायतन में विराजमान शाश्वती जिन प्रतिमायें देवों के वन्दन पूजन के लिये हैं न कि केवल प्रदर्शनार्थ ही वहां प्रतिष्ठित हैं, यदि ऐसा ही होता तो सूत्र में इस स्थान पर जो पूजासामग्री के संभार का उल्लेख किया है वह सब व्यर्थ सिद्ध होता है ! एवं आत्मकर्तव्य सम्बन्धी विचार परम्परा में निमग्न हुए सूर्याभ का जो कर्तव्य निर्दिष्ट किया गया है वह, तथा उसके अनुसार उसका आचरण करना ये दोनों बातें मूर्तिवाद को शास्त्रीय अथच विधिनिष्पन्न सावित करने के लिये पर्याप्त हैं । और प्रस्तुत सूत्र में जो पूजाविधि का उल्लेख किया है उस पर से तो यही निश्चित होता है कि सूत्रकार महर्षियों को उसे गृहस्थ धर्म के प्राचार मार्ग में प्रतिष्ठित करना ही अभीष्ट है, अन्यथा पूजा का इतना विस्तृत विधान न करके केवल इतना ही लिख देना चाहिये था कि देवों के कथनानुसार सूर्याभ ने सिद्धायतन में जाकर पूजा की । परन्तु ऐसा नहीं लिखा, इससे ज्ञात होता है कि आगम निर्माता महर्षियों की सर्वतोभाविनी व्यापक पि मूर्तिवाद-मूर्ति उपासना यह गृहस्थ की प्रतिदिन की धार्मिक प्रवृत्तियों में से एक अथच असाधारण है । अतएव उन्होंने अपनी वर्णन शैली के अनुसार सूर्याभदेव के पूजाप्रस्ताव पूजाधिकार में ही पूजा विधि को विशिष्ट स्थान देकर उसे देव, मनुज, व सर्वसाधारण के लिये विहित कर दिया । ज्ञाताधर्मकथा में उल्लेख की गई मानवी व्यक्ति द्रौपदी की. पूजा विधि को राजप्रश्नीयगत सूर्याभदेव की पूजा विधि से उपमित करने या उदाहत करने का अर्थ ही यह है कि देवों के लिये विधान किये गये जिन प्रतिमाओं के बन्दन १जन श्रादि का अधिकार मनुष्यों को भी प्राप्त है। एतदर्थ ही बृहत्कल्प
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