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नवयुग निर्माता
विधिवाद तब तक अप्रमाणिक नहीं माना जा सकता जब तक कि उसका प्रतिषेधक कोई साक्षात् वाक्य उपस्थित न हो। अगर इससे और भी अधिक स्पष्टीकरण इस विषय का देखना हो तो औपपातिक सूत्र को देखो । वहां अम्बड़ परिव्राजक के अधिकार में गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी फर्माते हैं
गौतम ! अम्बड़ परिब्राजक को अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमा के सिवा अन्य किसी भी मत के साधु और देवताओं (प्रतिमाओं) को वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता, यहां तक कि यदि किसी ने तीर्थंकर प्रतिमा को अपने देव के नाम से अपने मंदिर में प्रतिष्ठित कर लिया हो तो अम्बड़ उसको भी वन्दना नमस्कार नहीं करेगा। तात्पर्य कि अम्बड़ को तीर्थकर और तीर्थंकर प्रतिमा के सिवा और कोई भी वन्दनीय नहीं है । उसे तो एकमात्र तीर्थंकर और तीर्थंकर प्रतिमा ही वन्दनीय है। यह बात औपपातिक सूत्र गत-"नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा” इस उल्लेख से प्रमाणित होती है। औपपातिक का वह मूल पाठ इस प्रकार है
"अवड़स्स णं परिवायगस्स नो कप्पइ अण्णउथिए वा अण्ण उस्थिय देवपाणि वा अण्ण उत्थिय परिग्गहियाई अरिहंत चेहयाई वा वंदित्तए वा नमंसिनए वा जाव पज्जुवासित्तए वा णएणत्थ अरिहंतेवा अरिहंतेवा अरिहंत चेहयाणि वा" (समिति पृष्ट १७)
इस आगम पाठ की अर्थगवेषणा पर से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि उस समय अन्य मतों की तरह जैन मत में भी मूर्ति की उपासना-तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा का काफी प्रचार था। अगर जैन परम्परा में उस समय जिन मन्दिरों का निर्माण और जिन प्रतिमाओं की स्थापना न हुई होती, तथा उनकी उपासना का प्रचार न होता तो अम्बड़ परिव्राजक के विषय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ["हे गौतम ! अम्बड़ परिब्राजक को अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमा के सिवा और किसी को भी वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता"] इस विधेय रूप कथन का कुछ भी मूल्य नहीं रहता और यह बिल्कुल मिथ्या प्रलाप सा बनकर रह जाता ! जिसकी कि कोई विचारशील सम्भावना भी नहीं कर सकता ।
तब इस पर से तुम लोग यह तो अच्छी तरह से समझ गये होंगे कि उपासक दशा और औपपातिक इन दोनों आगमों के उक्त पाठ जैन परम्परा में प्रचलित मूर्ति उपासना को आगम विहित अथच श्रागम सम्मत प्रमाणित करने के लिये अपने अन्दर कितना असाधारण बल रखते हैं । अगर जैन परम्परा में जिन प्रतिमा को कोई विशिष्ट स्थान प्राप्त न होता, और उसकी प्रवृत्ति विधि निष्पन्न या शास्त्रीय न होती तो इन आगम पाठों की उपपत्ति भी किसी प्रकार से नहीं हो सकती । एवं आगमों के समय यदि जिन प्रतिमा का अस्तित्व नहीं था तो उसे वन्दना नमस्कार का विधान और अमुक प्रकार की (अन्यमत परिगृहीत) जिन प्रतिमा को वन्दना नमस्कार करने का निषेध, ये दोनों विधि निषेध उस से कैसे सम्बन्धित किये जा सकते हैं ?
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