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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
उत्तर - गोयमा ! सेणं इओ एगेणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरणं करे, नंद० २ करेत्ता तहिं चेहयाई वंदति तहिं० २ वंदित्ता वितिएण उप्पारणं पंडगवणे समोमरणं करेड़ पंडग० २ करेत्ता तहिं चेहयाई बंद, तर्हि ० २ वंदिता तत्रोपड़िनियत्तति तत्रोपड़िनियत्तित्ता इहमागच्छर इहमागच्छित्ता इह चेहयाई वंदति । विज्जाचारणस्स गं गोयमा ! उड्ढ एवतिए गतिविसए पन्नते [ शत. २० उ० ६ ]
प्रश्न - हे भगवन् ! विद्याचारण की ऊर्ध्व गति का विषय कितना है ?
उत्तर - गौतम ! विद्याचारण एक उत्पात से नन्दन वन में समवसरण स्थिति करता है और वहां पर विद्यमान चैत्यों को वन्दना करता है। फिर दूसरे उत्पात से वह पांडुक वन में पहुंचता है और वहां के चैत्यों को वन्दना करता है वहां के चैत्यों को वन्दना करके पीछे लौटकर यहां आता है और यहां पर विद्यमान चैत्यों को वन्दना करता है । हे गौतम! विद्याचरण मुनि की ऊर्ध्वगति का इतना विषय कहा है ।
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इसी प्रकार उक्त सूत्र में जंघाचारण मुनि की तिर्यक् और ऊर्ध्वगति का अभिलेख है । जिसमें अधिक अन्तर न होने से उसकी चर्चा नहीं करते। इन आगम पाठों से मानुषोत्तर पर्वत नन्दीश्वर द्वीप नन्दन वन और पांडुक वन आदि में तथा यहां भरत क्षेत्र में चैत्यों अर्थात् जिन प्रतिमाओं के अस्तित्व में तो कोई सन्देह नहीं रहता । तात्पर्य कि इन स्थानों में जिन प्रतिमायें विद्यमान थीं यह सुनिश्चित रूप से सिद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह भी प्रमाणित हो जाता है कि ये जिन भवन या जिन - प्रतिमायें वहां पर केवल नुमायश के लिये केवल प्रदर्शनार्थ ही नहीं थे किन्तु वन्दना और पूजा के लिये प्रतिष्ठित थे उनमें मानुषोत्तर आदि के शाश्वत जिन बिम्बों के दर्शन और सेवा पूजा का लाभ देवों विद्याधरों और लब्धिसम्पन्न मुनियों को ही प्राप्त होता, [ कारण कि साधारण मनुष्यों की वहां गति नहीं] जबकि यहां पर रहे हुए शाश्वत चैत्यों की सेवा पूजा का लाभ यहां के श्रद्धालु मनुष्य भी प्राप्त करते थे ।
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तब, श्रमणोपासक आनन्द और परिव्राजकाचार्य अम्बड़ आदि के लिये जो तीर्थंकर प्रतिमायें वन्दनीय हैं, एवं विद्याचरणादि लब्धिसम्पन्न मुनि जिन शाश्वती जिन प्रतिमाओं को वन्दना करने के लिए मानुषोत्तरादि स्थानों पर जाते हैं और लौटते समय यहां के जिन अशाश्वत चैत्यों को वन्दना करते हैं, वे
उत्तर - गौतम ! स इतः एकेन उत्पातेन नन्दन वने समवसरणं करोति नन्दनवने समवसरणं कृत्वा
तत्र चैत्यानि वन्दते तत्र चैत्यानि वंदित्वा द्वितीयेन उत्पातेन पांडुक वने समवसरणं करोति पांडुक वने समवसरणं कृत्वा तत्र चैत्यानि वन्दते तत्र चैत्यानि वंदित्त्वा ततः प्रतिनिवर्तते ततः प्रतिनिवृत्य त्रागच्छति, अत्रागत्य अत्र चैत्यानि वन्दते । विद्याचारण गौतम ! ऊर्ध्वं एतावान् गति विषयः प्रज्ञप्तः ।
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