Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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और प्रव्रज्या ग्रहण कर उत्तरोत्तर आत्मा का विकास करते हुए नौवें भाव में तीर्थंकर पद प्राप्त किया और अन्त में जन्म, जरा, मरण की आधि, व्याधि एवं उपाधि से मुक्त होकर शाश्वत पद प्राप्त किया? इसी का विशदवर्णन इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने किया है।
मुख्य चरित्र के वर्णन के साथ साथ यथास्थान नौ अवान्तर कथाएँ दे कर लेखक ने चरित्र को अधिक रोचक बनाया है । इन कथानकों में मानव प्रकृतियों का और उनके विविध पहलुओं का सुन्दर चित्रण हुआ है । साथ ही इन कथानकों के माध्यम से जैन धर्म के मुख्य तत्व जीवादि नौ पदार्थ, पर द्रव्य, आठ कर्म उनको नष्ट करने के उपाय, धर्म के चार अंग दान, शील, तप और भावना, साधु एव श्रावकों आचार आदि का सुन्दर एवं सरल भाषा में विषद रूप से निरूपण भी किया है ।
इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ प्राकृत है फिर भी सरल, कोमल, स्वाभाविक प्रौढ़ तथा परिमार्जित है। पाण्डित्य पूर्ण व्यावहारिक और मुहावरेदार है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ पद्यमय है। इसक गाथा प्रमाण १०९९५ है । इसकी गाथाएँ आर्या छंद में है। कहीं कहीं कवि ने अत्यल्प मात्रा में छंदों का भी प्रयोग किया है। भगवान् मुनिसुव्रत की स्तुति संस्कृत भाषा में की है । इसमें शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ, रुचिरा वसन्ततिलका, मालिनी, ऋषभगजविलासित पृथ्वी, शिखरिणी, कुसुमितलता, वल्लिता जैसे छंदों का उपयोग किया है । यत्र तत्र सुक्तियों का एवं लोकोक्तियों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। भाषा को सजाने के लिए कवि ने विविध अलंकारां की योजना की है। शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक एवं वीप्सा का तथा अर्थालंकारों उपमा और उत्प्रेक्षा का भी विपुल प्रयोग हुआ है अन्य अलंकारों का भी सर्वत्र उपयोग किया है । कथा में निरसता को दूर करने के लिए लेखक ने नगर, युद्ध, विवाह, ऋतु देवविमान आदि के वर्णन विद्वतापूर्ण शैली में एवं प्रांजल भाषा में किये हैं। इसके कई वर्णन बाण की कादम्बरी और श्रीहर्ष की रत्नावलि, कल्पसूत्र, राजप्रश्नीय सूत्र एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से प्रभावित है। आगमों में तीर्थकरों के जन्म प्रव्रज्या एवं निर्वाण का जैसा वर्णन आता है उन्हीं वर्णनों को लेखका ने गाथाबद्ध शैली में अपने चरित्र में अपना लिया है। ग्यारहवीं एवं बारहवीं सदी में उपलब्ध ख्यात नाम चरित्र ग्रन्थों की तरह लेखक इस चरित्र ग्रन्थ को सर्वांगीण रूप से परिपूर्ण बनाने में सफल हुआ है । भ. मुनिसुव्रत पर लिखे गये अब तक के चरित्र ग्रन्थों में यह अधिक विशाल और सुरुचि पूर्ण है। प्राकृत भाषा में ऐसा सुन्दर महाकाव्य लिखकर आचार्य श्री धीचन्द्रसूरि ने प्राकृत साहित्य की महती सेवा की है यह निर्विवाद है।
श्री मुनिसुव्रतस्वामी की चरित परम्परा और मूल स्त्रोत
प्राचीनकाल से ही लोकोत्तर महापुरुषों के जीवन चरित्रों को लिखने की प्रथा प्रचलित है। इन चरित्रों को लिखने का एकमात्र उद्देश यही रहा है कि व्यक्ति अपने जीवन को शुभ प्रवृत्तियों में लगावे और अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त हो । कथा रचना में ऐसा उच्चतम एवं उदात्त आदर्श जैन कथा वाङ् मय की अपनी विशिष्टता है। जैन कथाओं का प्रयोजन केवल लोकरंजन न रहकर मनोरंजन के साथ किसी उच्च आदर्श की स्थापना करना अशुभ कर्मों के कटु परिणामों को बताकर शुभ कर्म की ओर प्रेरित करना रहा है। उच्चतर सामाजिक नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करना व्यक्तित्व के मूलभूत गुण, साहस, अनुशासन, चातुरी, सज्जनता, सदाचार एवं व्रतनिष्ठा आदि को प्रोत्साहित करना तथा उनके चरित्र में उन संस्कारों को बद्धमूल करना यही जैन कथा साहित्य या चरित्र का प्रयोजन है।
आगम साहित्य के बाद जो कथा साहित्य या चरित्र ग्रन्थ रचे गये हैं उनकी रचना प्रवाह में एक नया मोड़ आया । आगमगत कथाओं चरित्रों और महापुरुषों के छोटे बड़े जीवन प्रसंगों को लेकर मूल कथाओं को विस्तृत कर एवं उनमें प्रसंगानुसार अवान्तर कथाओं को जोड़कर एवं उनमें पूर्वजन्म की कथाओं का संयोजन कर उसका विस्तार पूर्वक वर्णन करना यही पश्चात्वर्ती साहित्यकारों की शैली बन गई।
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