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श्रीवट्टकेरस्वामिकृतो
मूलाचारः (श्रीवसुनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तिविरचितटीकासहितः )
'द्वादशानुप्रेक्षाधिकारः "सिद्ध णमंसिदूण य झाणुत्तमखवियदीहसंसारे।
दह वह दो दो य जिणे दह दो अणुपेहणा वुच्छं ॥६६३॥' सिद्धान् लब्धात्मस्वरूपान् । नमंसित्वा प्रणम्य । किविशिष्टान् ? ध्यानेनोत्तमेन क्षपितो दीर्घसंसारो यस्ते ध्यानोत्तमक्षपितदीर्घसंसारास्तान् शुक्लध्यानविध्वस्तमिथ्यात्वासंयमकषाययोगान् । दश दश वीप्सावचनं चैतत् विंशतितीर्थकरान्, द्वौ द्वौ चतुरश्चतुर्विंशतितीर्थकरांश्च जिनान् प्रणम्य । दश द्वे च द्वादशानुप्रेक्षा वक्ष्य इति संबंधः । ध्यानमध्ये या द्वादशानुप्रेक्षाः सूचितास्तासां प्रपंचोऽयमिति ॥६६३॥
गाथार्थ-उत्तम ध्यान द्वारा दीर्घ संसार का नाश करनेवाले सिद्धों को और चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करके बारह अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा ॥६६३॥ .
आचारवृत्ति-जिन्होंने शुक्लध्यान के द्वारा मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप दीर्घ संसार का विध्वंस कर दिया है और जो आत्मस्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं ऐसे सिद्धों को तथा दश-दश, दो-दो अर्थात् वर्तमान विंशति तथा चतुर्विंशति तीर्थंकरों को भी नमस्कार करके, दश और दो अर्थात् द्वादश अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा, क्योंकि ध्यान के मध्य जो द्वादश अनुप्रेक्षाओं को सूचित किया था, उन्हीं का यह विस्तार है ऐसा समझना।
१. फलटन से प्रकाशित प्रति में यह नवम अधिकार है और 'अनगार भावना' अष्टम अधिकार है। २. वन प्रेक्षानामान्याह ।
अनन्त पदलाभाय यत्पदद्वन्द्वचिन्तनम् ।
जगदहः स वः पायाद्देवस्त्यागदिगम्बरः ।। द्वादशानुप्रेक्षाधिकारमष्टमं प्रपञ्चयंस्तावदादो नमस्कारपूर्वकं प्रतिज्ञावाक्यमाह-इति र प्रतो अधिकः
पाठः। ४. ध्यानमध्ये या द्वादशानुप्रेक्षाः सूचितास्तासां प्रपंचोऽयमिति प्रतिज्ञावाक्येन सूचितास्तासां प्रपंचोऽयमिति,
प्रेस-पुस्तके पाठः ।
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