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मेरे कथागुरुका कहना है
'भिक्षासे भिन्न अन्य कोई वृत्ति संसारमें नहीं हैं महाराज ! जो न्यून मांगता है, दाताका कृतज्ञ होता है और यथावसर लौटा देता है वह प्रथम कोटिका भिक्षु है; जो अधिक मांगता है, कृतज्ञ होता है किन्तु लौटाता नहीं वह मध्यम कोटिका; और जो अधिक माँगता है, कृतज्ञ नहीं होता वह लौटानेमे सर्वथा असमर्थ निकृष्ट कोटिका याचक है ।'
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नीलोपमको यह वृत्ति - विवेचना सुननेका अवकाश नहीं था। उसके आदेशसे एक भृत्यने याचकको एक बारका भोजन ला दिया और अश्वालय के एक कोने में सोनेका स्थान बता दिया ।
अगली भोर वह याचक चला गया ।
सातवें दिन दिन
कम्बुराजकी सेनाका पड़ाव द्वीपकगढ़ के नीचे
लग गया ।
अनायास द्वीपकगढ़का द्वार खुला | कम्बु सेना प्रत्याक्रमणको आशंकासे समुद्यत हो गयी । किन्तु कुछ ही समय पीछे कम्बुराजने देखा, गढ़के भीतरसे आनेवाले सैनिकोंके पीछे युद्धके उपादान नहीं, किसी अन्य सामग्री से भरे छकड़ोंकी पंक्तियाँ ही थीं ।
उन छकड़ों में कम्बुसेना के लिए सुस्वादु भोजन था और उनके आगे था कम्बुमहल-द्वारका उस दिनका तरुण याचक शतवाहन — द्वीपक राज्य का युवराज ।
'कम्बुराज, कम्बुवासियोंकी जीवन-रक्षा के लिए पर्याप्त धान्य शीघ्र ही हमारे अन्नागारोंसे पहुँचेगा - वह हमारा मधुर, सुकृत-जनित कर्त्तव्य होगा । उसके बदले यदि आपकी प्रजा हमें हमारी पूर्व प्रस्तावित औद्योगिक सहायता न देना चाहेगी तो भी हमें कोई आपत्ति न होगी। अभी हम आपके दलके आतिथ्य के लिए भोजन लाये हैं; पहले इसके ही उपयोगकी व्यवस्था कीजिए । तदनन्तर यदि आपकी युद्ध-क्रीड़ाकी ही इच्छा हो तो आगे हमारा यह दुर्ग है और आपकी सेनाके पीछे भी, वह देखिए, हमारी