Book Title: Mere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Author(s): Ravi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 177
________________ काठ और कुल्हाड़ी १७७ पहले यात्रीने अबकी बार वनदेवीका हो ध्यान किया, और उसके प्रकट होनेपर अपने अन्यायपूर्ण आक्रमणके लिए क्षमा माँगी । उसने वनदेवीसे एक रात उसके किसी कोमल भू-भागपर निवासकी अनुमति माँगी, जिसे देवीने सहर्ष प्रदान कर दिया । देवीने उसे पड़ोसकी धरतीका सबसे नरम भाग दिखा दिया और पातालभेदी वटका एक बीज उसकी सहायतार्थ देकर अदृश्य हो गयी । यह बीज धरतीके भीतर किसी भी दिशामें सौ घोड़ोंकी गति से चल सकता था । इस यात्रीने वट - बीजको आवश्यक आदेशके साथ संचालित कर उसका अनुगमन किया । कुछ दूरतक सीधे धरतीके भीतर प्रवेश कर वह भीतर - ही भीतर भूतल के समानान्तर बढ़ा और उस स्थलपर पृथ्वीको फोड़कर ऊपर आ गया, जहाँ वृक्षोंकी जड़ोका अटकाव न रह गया था, और वनकी सीमा समाप्त हो चुकी थी । बीज द्वारा निर्मित इस सुरंगकी राह यह यात्री भी वनके पार आ गया । दूसरा यात्री जिसे अपने रथ और कुल्हाड़ी का मोह भी था, इस पहलेका अनुसरण नहीं कर सका और अपनी थकान और निश्चेष्टता के कारण वहीं नष्ट हो गया । X X X कहते हैं कि तीसरा यात्री अभी तक अपने इष्ट देवताके आशीर्वादोंका बल ले-लेकर, उस वनकी कटाई करता हुआ आगे बढ़ रहा है, और उसका संघर्ष उत्तरोत्तर प्रबल होता जा रहा है । यह तीसरा यात्री ही आजकी मानव-जातिका अगुआ बनकर चल रहा है । किन्तु क्या काष्ठ और कुल्हाड़ियोंका यह अजेय संघर्ष मनुष्यके हाथ-पाँवके लिए अछोर उस वनसे उसे और उसके अनुयायियोको कभी बाहर पहुँचा सकेगा ?

Loading...

Page Navigation
1 ... 175 176 177 178 179