Book Title: Mere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Author(s): Ravi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 178
________________ साधनाका अन्त साधनाकी अनेक मंज़िलें पार करते हुए अन्तमें मैंने अपनी अभीष्ट सिद्धिको प्राप्त कर लिया। स्वर्ग, अमरत्व और मोक्षकी कामनाओंसे भी अनाकर्षित, मेरी एकमात्र कामना अपने परम आराध्य प्रियतम भगवान्के साक्षात् दर्शनकी ही थी। लोचनाभिराम घनश्याम भगवान्के दर्शनोंके आगे कोटि-कोटि स्वर्गो और मोक्षोंके सुखको सन्तजनोंने न्योछावर कर दिवा था और मैने भी उन्हींकी परिपाटीका अनुशीलन किया था। मेरी अखण्ड एवम् अविचल अनुराग-साधनाके वशीभूत होकर भगवान् अपने साकार रूपमे मेरे सामने प्रकट हो गये। उन्मत्त उल्लाससे मैं नाच उठा। भगवन् नामके कोर्तनको अजस्र धारा मेरे मुखसे फूट पड़ी। अथक नृत्यगतिसे मेरे पग धरतीको नाप चले। सहस्रों भक्तोंकी भीड़ मेरे कीर्तनध्वनिकी अपने कण्ठोंसे आवृत्ति करती और मेरी नृत्य-गतिपर झूमती मेरे पीछे चल पड़ी। मैं अपने युग और देशका भक्त-शिरोमणि सन्त घोषित कर दिया गया। और अन्तमें, कह नहीं सकता कितनी धरती और कितने कालकी यात्राके पश्चात् मेरे पग रुके, कण्ठस्वर थमा और उस असाधारण अननुभूतपूर्व स्थिरता एवम् नीरवताके क्षणमें असंख्य वर्षाका पुरातन एक युग अनायास हो खिंचकर मेरे सामने प्रस्तुत हुआ। मैंने देखा, एक मोटा चूहा गेरूकी एक छोटी डली मुखमें दबाये उछलता-कूदता भागा चला जा रहा है और उसके पीछे सहस्रों छोटे और कृशकाय चूहोंकी एक भीड़ लगी जा रही है। अग्रगामी मोटे चूहेका भयभीत अभिप्राय यही है कि उसे कोई अत्यन्त सुस्वादु खाद्य पदार्थ मिल गया है और उसे दूसरे सबोंसे बचाकर वह किसी सुरक्षित स्थानमें भाग जाना चाहता है और उसके पीछे लगे हुए चूहोंकी

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