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काठ और कुल्हाड़ी तीन यात्री राह भूलकर एक घने, दुर्गम वनमें फँस गये । बाहर निकलनेका जब उन्हें कोई मार्ग न मिला तो उन्होंने अपने इष्टदेवका ध्यान किया। देवताने प्रकट होकर उनकी प्रार्थनापर एक-एक कुल्हाड़ी उनके हाथोंमें थमा दी। ___ उन कुल्हाड़ियोंकी काटसे वृक्षपर-वृक्ष धराशायी होने लगे, और उनके बीच मार्ग बनाते वे यात्री अपने रथों-बैलों सहित आगे बढ़ने लगे। वनकी देवीको इन मानवोंका यह अतिक्रमण अच्छा नहीं लगा, और उसने अपने वृक्षोंके काष्ठमें लौह-तत्त्वकी मात्रा कुछ और बढ़ाकर उन्हें बहुत कुछ अकाट्य बना दिया। यात्रियोंकी कुल्हाड़ियाँ वृक्षोंके तनोंपर से उचककर लौटने लगीं।
यात्रियोंने फिर अपने इष्टदेवका ध्यान किया। देवताने उनकी कुल्हाड़ियों में भेदक तत्त्वको मात्रा बढ़ाकर उन्हे और भी सुदृढ़ रूपमे पैना कर दिया । कठोर वृक्ष अब सहज ही उनकी मारसे कटने लगे।
किन्तु मानवोंके इष्टदेवके समकक्ष वनदेवीका सामर्थ्य भी कम नहीं था। वह अपने वृक्षोंको उत्तरोत्तर सुदृढ और अकाट्य बनाती गयी और यह अपने मानवोंकी कुल्हाड़ियोंको उत्तरोत्तर तीक्ष्ण बनाता गया । यह अब वास्तवमें यात्रियों और वनके बीच नहीं, मनुदेव और वनदेवीके बीचका ही संघर्ष बन गया ।
इस संघर्षका जब दीर्घ काल तक कोई पार लगता न दीखा तो अन्तमे एक यात्रीने अपनी कुल्हाड़ी फेंक दी। दूसरेने भी, जो थकान और निराशा ते चूर हो चुका था, उसका अनुकरण किया; किन्तु तीसरा, जो सबसे अधिक साहसी और अजेय प्रवृत्तिका था, अपने उद्योगमें बराबर लगा रहा।