Book Title: Mere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Author(s): Ravi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 174
________________ १७४ मेरे कथागुरुका कहना है राजमहलोंकी नवागता, नव-विवाहिता युवराज्ञी रामगुप्तपर अनुरक्त है । चर्चा महलोंकी न रहकर नगर भरकी हो गयी। सहस्रों मुखोंने सहस्रों कानोंके समीप सटकर इसकी सूचना दी । महाराज चिन्तित हुए । युवराजका क्षोभ दिशाएँ खोजने लगा । चातुर्मास के अभी दो महीने शेष थे। रामगुप्तको समयसे पूर्व बिदा करनेका निश्चय महाराजके लिए भी सुगम नहीं था । जनताका वह परम श्रद्धय था । सभा अगले दिन भी यथावत् जुड़ी । किन्तु आज युवराज्ञीका आसन रीता था, वह अपने महलके शयन कक्षमें पीड़ा शय्यापर थी। सभासे उसकी अनुपस्थिति हो परिस्थितिको साधनेका स्वभावतया सर्वप्रथम पग होना चाहिए था । फिर भी रामगुप्तकी आँखें जैसे उसे खोज रही थीं । प्रवचनमें आज उसने फिर कहा : 'प्रेम निरीह है आकाश जैसा, शीतल है चन्द्रिका जैसा । उसमें आकुलता और दाहका भान भी कभी होता है, किन्तु वह अर्द्ध दर्शनका परिणाम है । जो उस आकुलता और दाहसे भयभीत होकर पीछे लौटता है वह महान् लक्ष्यके समीप आकर अपनी दिशा बदल देता है ।' यह युवराज्ञीके लिए रामगुप्तका मुक्त निमन्त्रण नहीं तो और क्या था ? राजकुलकी मान्यता और सत्ताके लिए चुनौती नहीं तो और क्या था ? आशङ्का और आतङ्कका वातावरण और भी सघन हो गया । उसी रात रामगुप्तके एकान्त शयन कक्षमें युवराज्ञीने प्रवेश किया । उसकी असाध्य विवशताके आगे दूसरा कोई मार्ग नहीं था। रामगुप्तने आगे बढ़कर उसके विमुक्त समर्पणको अपनी बाँहोंमें भर लिया। युवराज्ञीके मुखपर रामगुप्तके होठोंका एक स्पर्श अंकित हो गया । युवराज कक्षके खुले द्वारपर थे, जैसे यन्त्र - कीलित | उनके हाथमें नंगी तलवार थी । रामगप्तने यवराज्ञीके पीछे-पीछे आते उन्हें देख लिया था ।

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