Book Title: Mere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Author(s): Ravi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 172
________________ १७२ मेरे कथागुरुका कहना है उसके पाँवोंके पास डाल दिया। अब उसकी चेष्टा जगी । स्वर खुला : 'तुम्हारा यह अनुराग पाकर कृतार्थ हुआ हूँ, मेरी रागमयी ! दस वर्ष पहले तुम्हे सम्मुख पाकर तुम्हारी अर्चनामे मुझसे जो भूल हो गई थी उसकी पुनरावृत्ति नहीं करूँगा। तुम्हारे मधुसे पहले तुम्हारी विस्तृत पीडाका ही पान करूँगा। एक अपनी तृप्तिके लिए तुम्हारे इस रूप तक पहुँचनेका मार्ग बनाकर नहीं, तुम्हारे सहस्र-सहस्र रूपोंके सालिंगन चुम्बनोंको तुम्हारे सहस्र-सहस्र प्रेमियोंके लिए मुक्त करके ही मैं तुम्हे वरण करूँगा। तबतक इस कारागारकी परिधि-शलाकाओंसे दूर हटकर ' अपनी शयन-स्थलीमें ही तुम विश्राम करो।' रूपदेवीकी दी हुई कटार उसने उठा ली और उसका पैना अग्रमुख विद्युत् गतिसे उसके हृदयके मध्य विन्दु तक जा पहुँचा । इस प्रकार निस्सृत अपने हृदयके रक्तसे उसने रूपदेवीके सम्मुख की हुई अपनी व्रतमयी प्रतिज्ञा पत्रांकित कर दी । पृथ्वीके चौदह स्वर्गोंके समस्त तान्त्रमुद्रक (टेलिप्रिंटर) उसी क्षण एक-साथ इसकी विज्ञप्तिसे खडक उठे और आकाशके अंकनालयमें भी उसकी यह प्रतिज्ञा अंकित कर ली गयी। समीरके एक सूक्ष्म प्रवाहने यह सन्देश सम्पूर्ण जन-मानसके अन्तस्-पटल तक पहुँचा दिया। विज्ञ क्षेत्रोंमें चर्चा है कि उस प्रेमाराधककी उपर्युक्त क्रियताका लोकमंगलकी योजनाओंमें एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, वह उसकी प्रेम-साधनाकी एक माध्यमिक दीक्षाका ही विवरण है और उस दीक्षाके फल-स्वरूप उसके हाथों में होकर कुछ ऐसी शक्तियोंका प्रवहन प्रारम्भ हो गया है जो रूपदेवीके कारागारकी चौरासी सहस्र लौह-शलाकाओंको जर्जर करने और उनमें से कतिपयको स्वल्पकालके भीतर ही विगलित कर देनेके लिए पर्याप्त हैं।

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