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दानकी विडम्बना
किसी नगरमें एक व्यवसाय-कुशल सेठ बड़ा नीतिवान् था। वह अपने सहकारी व्यापारियोंको और सेवकोंको उनकी सेवाओंके बदले सदैव भरपूर आर्थिक पुरस्कार देता था। किन्तु उसके मित्रोंकी संख्या भी बहुत थी और वे उसकी हर समयकी सेवा करते रहते थे। स्वभावतया उन मित्रोंको सेवाओंका कोई मूल्य उसे नहीं चुकाना पड़ता था। मित्रोंकी सेवाओंका मूल्य चुकानेका कोई प्रश्न भी कैसे उठ सकता था !
यह सेठ मित्र बनानेकी कलामे पटु था और प्रतिमास निमन्त्रण-सत्कारद्वारा दस-पॉच नये मित्र बनानेका उसने नियम कर लिया था। ___ एक बार सेठने पड़ोसके एक गांवके दो ब्राह्मण-बन्धुओंको अपने इसी क्रममें निमन्त्रित किया। इन ब्राह्मण बन्धुओंकी, इनके पाण्डित्यके कारण, बडी प्रशंसा थी और राजकीय अधिकारियों, यहाँतक कि राज-दरबारमे भी इनका यथेष्ट मान था। दोनों पण्डितोंने बड़ी प्रसन्नता और कृतज्ञताके साथ सेठकी हवेलीमे आकर उसका आतिथ्य-सत्कार ग्रहण किया। उनमे से एकने जो बहुत सरल और लोक-चातुर्यसे रहित था, अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए यह भी कह दिया कि सेठका निमन्त्रण उसके लिए एक बहुत बड़ा आश्रय सिद्ध हुआ है, क्योंकि वह दो दिनसे भूखा था और उस समय तक उदर-पूर्तिका कोई साधन उसके समीप नहीं था।
सेठकी वणिक-बुद्धि बहुत तीन थी। इस ब्राह्मणके सत्कारमें व्यय हुआ धन उसने अपने दानके खाते में लिखवा दिया और दूसरे ब्राह्मणका यथा-नियम व्यवसायके खातेमे । बात यह थी कि सेठका दान-खाता बहुत कम भर पाया था और उसे यथेष्ट मात्रामे भरनेकी उसे चिन्ता थी।