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लक्ष्मीवाहन
बड़े घरको बुरी बात भी भली करके बतायी जाती है और बुराईका दूत भलाईका देवता बनाकर पूजा जाता है। लक्ष्मीवाहनकी यह कथा सच-सच लिखनेका साहस किसी पुराणकारने नहीं किया था। आप उसे अपने ही तक सीमित रख सके तो लीजिए सुन लीजिए।
एक बार भगवान् विष्णु और लक्ष्मीजीमें कुछ खटपट हो गयी। बात यह थी कि विष्णुजीने अपना डेरा अपने श्वसुरके घर क्षीरसागरमें डाल लिया था और लक्ष्मीजीको यह पसन्द नहीं था। वे अपने मायकेसे निकलकर पतिकुलमे निवास करना चाहती थीं। होते-होते बात बहुत बढ़ गयी और एक दिन उन्होंने पतिको अपने पितृ-गृहमें ही छोड़कर क्षीरसागरसे अकेले ही प्रस्थान कर देनेका चुपचाप निश्चय कर लिया।
रात्रिका एक प्रहर बीतने पर जब सब लोग सो गये तब लक्ष्मीजी चुपचाप क्षीरसागरसे बाहर निकलीं। सारा सागर उनके घरका आँगन था, उसका कोई भी छोर उनके लिए दूर नहीं था । सागर किनारे धरतीके अंचलपर पाँव रखते ही उन्हें एक वाहनको आवश्यकताका अनुभव हुआ-धरती या आकाशपर वे अधिक दूर पैरों नहीं चल सकती थीं।
समुद्र-तटकी धरतीपर बसा एक नगर था। लोग अपने-अपने घरोंके द्वार बन्द कर सो रहे थे। द्वार-द्वारपर जाकर लक्ष्मीजीने आहट ली। बड़ी कठिनाईसे एक घर उन्हे ऐसा मिला जिसका मालिक जाग रहा था । लक्ष्मीजीने द्वारपर थपको दी। गृहपतिने द्वार खोल दिया और अभ्यागताको पहचानकर उनकी यथोचित आवभगत की और इतनो रातमे अकेले वहाँ आनेका कारण पूछा। ___ 'मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे सूर्योदयसे पूर्व भगवान् शंकरके कैलास