________________
१६४
मेरे कथागुरुका कहना है व्यवसायका खाता प्रति-वर्ष राजाके दरबारमे आय-कर निर्धारणके लिए, और दानका खाता हर सातवें वर्ष कर्म-देवताके दरबारमे सेठके कुलदेवताके माध्यमसे आवश्यक पुरस्कार-निर्धारणके लिए प्रस्तुत किया जाता था।
कुछ समय बाद सेठपर राजकीय कर-विभागकी ओरसे एक बड़ी आपत्तिके रूपमें एक बड़ा कार्य-संकट आ पड़ा। सेठने अनुमान लगाया कि वे दोनों ब्राह्मण-बन्धु इस संकटमें उसकी सहायता कर सकते हैं। उसने उनसे सहायता माँगी, और उनके प्रभाव एवं अनुशंसासे वह सकट टल गया। इस सहायताके उपलक्ष्यमे सेठने उन दोनों बन्धुओंको पत्र लिखकर उन्हें हार्दिक धन्यवाद दिया और कहा कि उन जैसे समर्थ मित्रोंको पाकर वह बहुत गौरवान्वित हुआ है। उसने यह भी उन्हें लिखा कि किसी प्रकारकी आर्थिक संकीर्णताके अवसरपर उन्हें निस्संकोच उसे याद करना चाहिए। इसमें सन्देह नहीं कि सेठका यह कार्य यदि उसके मित्रोंसे भिन्न किसी अन्य व्यक्तिने किया होता तो वह अपनी संकटग्रस्त धनराशिका कमसे-कम दशमांश उस व्यक्तिको पारिश्रमिक रूपमें अवश्य ही भेंट कर देता।
सात वर्ष पूरे होनेपर उस सेठको दान-बही उसके कुल-देवताके द्वारा स्वर्ग लोकमें कर्मराजके दरबारमे प्रस्तुत की गयी। कर्मराजके लिपिकाजनोंने अपने अनुप्रेक्षण और मापक यन्त्रोंद्वारा उस बहीका निरीक्षण करके घोषित किया कि उसमें एक ब्राह्मणके नाम डाला हुआ दान सहस्रगुणित होकर व्यवसायके अंकोंमें परिवर्तित हो गया है और यह धनराशि दूसरे सभी दानोंकी सम्मिलित धन-राशिसे छह गुनी अधिक है। इस प्रकार यह बही दानकी नहीं व्यवसायको बही बन गयी है और इसके अनुसार वह एक लाख स्वर्णमुद्राओंका अपने लोक-बन्धुओंका ऋणी है। इस दान-बहीपर लिपिका-जनोंने अपनी टिप्पणी दी कि उसके अंक लोक भाषामे