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न्यायकी चोरी
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शीघ्र ही राजाको ज्ञात हो गया कि उस चोरके साथ इस रानीका विवाहके पूर्वसे गहरा प्रेम था और राजासे विवाह उसकी अनिच्छासे, केवल राजबलके कारण ही हुआ था।
राजाने अगले दिन सहर्ष यथेष्ट धन-मानके साथ उस रानीको भी उस चोरके साथ बिदा कर दिया।
आगेको कथा है कि कुछ वर्ष बाद जब राजाने अपने पुत्रको राज्यभार देकर लोक-मंगलके लिए भिक्षाका पात्र सम्हाला तब उसकी शेष उन्नीस रानियोंमे से बारह अपने प्रियजनोंके पास चली गई और केवल सातने उसके साथ संन्यासकी दीक्षा ली। वानप्रस्थ आश्रममें वह अपने उस पुरस्कृत चोरका ही शिष्य बना। कहते हैं कि वह युवक चोर अपने युग का एक प्रमुख नैय्यायिक ऋषि माना गया और यह राजा उसका एक महान् शिष्य हुआ।