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नारी, नाव और सागर तरुण साधकने जबसे उस रूप-आकर्षणमयी नारीको देखा था, उसका मन उसीके लिए विह्वल था।
गुरुके सम्मुख जाकर उसने अपनी स्थितिका निवेदन करते हुए कहा
'गुरुदेव, मैं उस सुन्दरीका चिन्तन अपने मनसे निकालनेका प्रयास कर रहा हूँ, किन्तु यह उपक्रम भी बहुत पीडाप्रद है। इस पीड़ाको सहने का बल मुझे दें।'
'तुमने उसे कहाँ देखा था ? गुरुने पूछा। 'सागरमें । एकाकी, नौकापर ।' 'तुम उसके चिन्तनको मनसे निकाल दोगे तो क्या होगा ?' 'मैं उससे मुक्त हो जाऊँगा।' 'और यदि उसका चिन्तन करते रहोगे तो ?' शिष्य इसका उत्तर न खोज पाया।
'तो केवल यही होगा कि तुम उसे प्राप्त कर लोगे।' गुरुने सहज भावसे समाधान किया।
'प्राप्त कर लूँगा ?' युवकने सुखद आश्चर्यसे चकित होकर कहा-'उसे प्राप्त कर लेनेमे क्या मेरा कोई अहित न होगा ?'
"निस्सन्देह तुम उसे प्राप्त कर लोगे, सागरमें, उसी जल-भागमें । वहाँ केवल तुम होगे और वह सुन्दरी, वह नौका भी नहीं होगी।' ___'यह भयावह है गुरुदेव ! मैं देख रहा हूँ। मुझे उसके चिन्तनसे मुक्त होनेका ही प्रयत्न करना चाहिए।' ___ 'तुम कर सकते हो। किन्तु उससे मुक्त होनेपर तुम उसकी सूनी नौकामे होगे और वह नौका जलमें न होकर थलमें होगी।'