Book Title: Mere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Author(s): Ravi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 136
________________ १३६ मेरे कथागुरुका कहना है महाराजने ज्योतिषीका अनुरोध मान लिया। कुछ ही दिन पीछे आखेट-यात्राके क्रममें महाराजको एक रात किसी वनके अंचलमें एक तरुण साधु-दम्पतिका अतिथि होना पड़ा। उनके आश्चर्य और मनोद्वेगकी कोई सीमा न रही, जब उन्होने पहचाना कि अनन्य रूपमें इस साधुको पत्नीको ही उन्होंने अपनी छोटी रानी तथा इस साधुको ही उसके प्रेमीके रूपमें देखा था और इन्हीं दोनोंका उस स्वप्नमें वध किया था। देखते ही उस अनिन्ध रूपवती साधु-पत्नीपर महाराज आसक्त हो गये। वह तरुणी भी उनपर अनायास ही मुग्ध हो गई। महाराज अभी युवा ही थे। अगले ही दिन महाराज महलोंको लौट आये। उनका मन सुन्दरीके प्रेमबाणसे पूर्णतया बिंध गया था। पयंक छोड़ वह तीन दिन तक दरबारमें भी नहीं जा सके। तीसरे ही दिन वह साधु अपनी पत्नीको लिये राजकक्षमें उपस्थित हुआ। उसने कहा 'महाराज, प्रेम न उच्छिष्ट होता है न अधिकृत, और न ही वह अनन्यताको परिधिमें बाँधा जा सकता है। स्वप्नकी मायामें आपने मेरा और मेरी पत्नीका वध किया था, किन्तु जागृतिके प्रकाशमें ऐसा नहीं करेंगे, इसके लिए मै आपका अभिनन्दन करता हूँ। मेरी पत्नी आपपर अनुरक्त है, उसे अंगीकार करें। X महाराजकी चेतनाके साथ-साथ उनके राजकुलको मर्यादाकी सीमाएँ भी उस दिनसे बहुत विस्तृत हो गई। दोनों राज्योंके सहस्रों सैनिकोंके रक्तपातको योजना समाप्त हो गई और राजकुमारीका भी उसके प्रेमीके साथ विवाह कर दिया गया ।

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