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मेरे कथागुरुका कहना है
'अनुगृहीत हूँ महायाज्ञिक । अवगत हूँ कि अनन्त यज्ञ-यागों द्वारा आपने त्रैलोक्यकी सिद्धि-सम्पदा अपने कमण्डल-गत कर ली है । किन्तु मैं तो अपने स्वल्पसे भी मुक्ति चाहता था, आपके विपुलकी कामना कैसे करूँ ? जो स्खला बड़े सौभाग्यसे आपके हाथों पाई है उसे अब किसी भी वस्तुभारसे क्षुब्ध नहीं करना चाहता।' महाराजने कहा। ___याज्ञिकके हाथ कैंपे। कमण्डल छूट कर महाराजके पावोंपर गिर गया। 'इन सिद्धि-सम्पदाओंकी उपलब्धिके साथ-साथ मेरी अतृप्ति ही बढ़ी है राजन् ! अपनी स्खलाकी शरण मुझे भी दो।' कहते-कहते महायाज्ञिकका शिर भी महाराजके चरणोंपर लुण्ठित हो गया।
कहते हैं कि महर्षि गोत्राभु और उनके पट्ट शिष्य कामण्डलिक अणुव्रतकी कथा किसी भावी पुराणके लिए सुरक्षित है ।