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सुप्त प्रेरक
एक पहाड़ीपर गिट्टियोंकी तुड़ाईका काम लग रहा था । सैकड़ों मज़दूर प्रतिदिन पहाड़ी चट्टानोंको कुदालोंसे तोड़ते और टूटी गिट्टियोंको डलियोंमें भर-भरकर देसावर भेजने के लिए छकड़ोंपर उँडेल आते ।
एक सुबह एक नया आदमी मज़दूरीके लिए वहाँ पहुँचा । वह अपने गांवसे रातभरकी मंज़िल पारकर वहाँ पहुँचा था । रातभरको थकान और rich साथ-साथ कई दिनोंके रोते पेटके भी लक्षण उसके शरीरपर स्पष्ट थे । डगमगाते पाँव, कठिनाईसे खुलती आँखें और मुर्झाया स्वर ।
'तुम्हें मज़दूरीका काम नहीं दिया जा सकता -- तुममें काम करनेका दम नहीं है ।' मज़दूरोंको नियुक्त करनेवाले अधिकारीने कहा ।
कामका मालिक संयोगवश उस दिन काम देखने वहाँ आया हुआ था और पास ही खड़ा था । उसने सिफ़ारिश कर इसे मज़दूरीपर लगा लिया । कामसे पहले नये मजदूरको मालिकने कुछ भोजन दिया और तत्पश्चात् उसे भी एक कुदाल और डलिया दे दी गयी ।
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पहाड़ीपर ऊपरकी ओर एक छोटी चौरस चट्टानपर जाकर उसने दोचार कुदालें चलायीं और वहीं पड़कर सो गया ।
दूसरे मज़दूरोंने उसे देखा । वह पहाड़ीके ऐसे खुले स्थलपर सोया था कि लगभग सभीकी दृष्टि उस तक पहुँचती थी ।
'कितना आलसी और नमकहराम है यह मज़दूर ! पड़ा सो रहा है और शामको हम सबके साथ बराबरकी मजदूरी लेने पहुँच जायेगा ! छिः ऐसा भी किसीको करना चाहिए !' वे सोचते रहे, कहते रहे और काम करते रहे ।