________________
आदमीका नुस्खा
प्राचीन युगमें एक बार देवों और असुरोंका संग्राम बढ़ते-बढ़ते भूलोक तक आ पहुँचा । देवताओंकी प्रकृति और स्वभावके अनुकूल होनेके कारण पृथ्वीके मनुष्य तुरन्त ही देव-पक्षमे सम्मिलित हो गये और पशुओंका वर्ग ही पृथ्वीपर ऐसा शेष रह गया जिसे असुर-जनोंको अपने दलमें लेनेके लिए विवश होना पड़ा। मनुष्य शरीर-बलमे पशुओंसे हीन होते हुए भी अपनी बुद्धि एवं मानवत्वके कारण अधिक समर्थ थे। इस प्रकार भूलोक के बँटवारेमें असुर-जन देवताओंकी तुलनामें घाटेमे ही रहे। इस बँटवारेके पश्चात् देवासुर-संग्राममें असुरोंकी विजयके अवसर बहुत घटकर पराजयके अवसर बहुत बढ़ गये।
असुरोंने मनुष्योंको देवताओंके वर्गसे तोड़कर अपने वर्गमे मिलानेके लिए भाँति-भांतिके प्रलोभन उन्हें दिये, किन्तु उन्हे इसमें तनिक भी सफलता न मिली। बार-बारकी पराजयसे जब असुरोके हाथ-पाँव फूलने लगे तब अन्तमें उन्होंने अपने धर्म-गुरु शुक्राचार्यकी शरण ली।
उनकी संकट-कथा सुनकर शुक्राचार्यने ध्यानके निमित्त अपनी एक आँख बन्द की। कहते हैं कि दूसरी आँख बन्द करनेका कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता था ! और तीन पलके भीतर ही ध्यानसे निवृत्त होकर उन्होंने आँख खोल दी । असुर-जनोंको सान्त्वना देते हुए उन्होंने कहा
'मनुष्य-जन आपके पक्षमें सम्मिलित होनेको उद्यत नहीं है तो न होने दीजिए । मनुष्योंके निर्माणका योग ( नुस्खा ) मैंने अभी-अभी खोज लिया है और आपके दलमें सम्मिलित पशुओंमे से ही जितनेकी आपकी आवश्यकता होगी उतने मनुष्य में बना दूंगा।'
और सचमुच स्वल्प कालके भीतर ही शुक्राचार्यने बारह अरब पशुओं१०