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जो नहीं जानता
किसी समय एक पूरा महानगर एक ही धर्म-गुरुका शिष्य था । यथासमय शरीरके वृद्ध हो जानेपर धर्म-गुरुने समाधि लेकर अपना देहान्त कर लिया। उनके रिक्त धर्मासनपर दो शिष्योंने अपने उत्तराधिकारका दावा किया। फलस्वरूप नागरिक-जन दो दलोंमें विभक्त हो गये और नगरमें दो धर्म-मठ स्थापित हो गये।
उस महानगरकी गुरु-परम्पराके अनुसार यह निश्चित था कि एक गुरुका एक ही सच्चा उत्तराधिकारी हो सकता है, अधिक नहीं। दोनों मठोंके अनुयायी अपने गुरुको ही सच्चा और दूसरेको झूठा मानते थे। स्वभावतया, दोनों दलोंका प्रयत्न था कि दूसरे दलके लोग भी अपने नये गुरुको छोड़कर इसी दलमें आ मिलें। दोनों दलोंके व्यक्ति विपरीत दलके अनुयायियोंमें जाकर प्रकट और अप्रकट रीतिने अपने मठके समर्थनमे प्रचार करते थे और कुछ लोगोंको अपने पक्षमें लानेमें सफल भी होते थे। उनका यह व्यापार स्वाभाविक ही नहीं, अपनी मान्यताके अनुसार उचित और आवश्यक भी था।
एक बार एक मठके गुरुने अपने कुछ शिष्योंको यह कार्य सौंपा कि वे दूसरे मठमें जाकर उसके गुरुकी उन असंगतियोंका पता लगायें, जो वास्तविक धार्मिकता और आध्यात्मिकताके प्रतिकूल हैं। अभिप्राय यह था कि उन असंगतियोंका पता लग जानेपर उनकी चर्चा सारे महानगरमें प्रसारित करके सचाईसे लोगोंको अवगत कर दिया जाय और विवेकका आश्रय लेकर लोग सच्चे पक्षमें आ मिलें।
इस गुरुके चौदह शिष्य विपरीत मठमें गये और उन्होंने गुप्त और प्रकट रूपसे, एक-साथ और अलग-अलग भी, उस गुरु तथा मठकी कसरों