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मेरे कथागुरुका कहना है
कोई आपत्ति है ?' भगवान् विवस्वान्ने सारी सभाको सम्बोधित कर कहा और उनकी आँखें उस मनुपुत्रपर विशेष रूपसे जाकर टिक गयीं ।
'मुझे आपत्ति हैं, ' लोक - माता अदितिका स्वर मुखरित हुआ और सभीकी आँखें उनके आसनकी ओर घूम गयीं, 'और मेरी आपत्तिका समर्थन करना स्वयं इस मनुपुत्रके लिए कठिन न होगा ।'
अदिति आसन से दो तरुण, श्रद्धा-समर्पण एवं अनुराग विवशता भरी. स्नेहार्द्र आँखें उस मनुपुत्रकी ओर झाँक उठीं। वह सिहर उठा । उसने पहचाना : ये लोकमाता अदितिकी सुपरिचित नहीं, एक मुग्धा नवयुवा सुन्दरीकी आँखें थीं जिनका साक्षात्कार उसने अपनी मृत्युके कुछ वर्ष पूर्व किया था ! उस निवेदनमयी दृष्टिका उसने उनकी स्थिति अनुकूल कोई मधुर उत्तर नहीं दिया था, क्योकि वह सुन्दरी अति तरुण थी और यह अति प्रौढ़; वह एक साधारण याचनाशील नारीत्वमयी तरुणी थी और यह मानवी रूपाकर्षणोंकी संवेदनाओंसे मुक्त एक संयमशील अति-प्रतिष्ठित जन - नायक । अदिति की उस दृष्टिमें इस मनुपुत्रने अपने अतीतके उस छोटे-से उपेक्षित सम्पर्कको पुनः स्पष्ट रूपमें पढ़ लिया और उसका सार्थक अभिप्राय भी अब अनायास ही उसके सामने खुल गया । अपनी आँखें नीची कर उसने अपनी अपात्रता स्वीकार कर ली ।
मानव समाजके अगले प्रधान विधायक पदके लिए निर्वाचन उन मानवोंमें से किसीका नहीं हो सका, क्योंकि दूसरोंमे चरित्र और क्षमताकी अन्य कुछ कमियाँ शेष थीं ।
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वैधानिक सभा विसर्जित हुई । वहाँ अवशिष्ट कुछ जनोंकी शंकाका समाधान करते हुए एक देवताने कहा
'नारीकी आँखोंमे जो सहज स्फुरित निमन्त्रण होता है - वह बालाकी मुग्ध जिज्ञासा हो वा वृद्धाका तरल वात्सल्य, प्रौढ़ाकी सुविकसित ममता हो या तरुणीकी मंदिर अनुरक्ति - वह अदितिका ही निमन्त्रण होता है,
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