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मतदान
बात कुल पांच सहस्र वर्ष पूर्व कलियुगके प्रारम्भ कालकी है। भूलोक-पति भगवान् सनत्कुमारके अधीनस्थ पृथ्वीको भौतिक और पारभौतिक शक्ति-सेनाओंके संचालनके लिए प्रधान सेनापतिका चुनाव होना था। पृथ्वी-जीवनके विकासके लिए देवी और आसुरी दोनों पक्षोंकी प्रवृ. त्तियोंका प्रभाव समय-समयपर आवश्यक था। विधानके अनुसार सेनापति निर्वाचन-द्वारा ही नियुक्त होता था। देवताओं और असुरोंने अपने-अपने वर्गके एक-एक व्यक्तिको इस निर्वाचनके लिए खड़ा किया।
उस समय जनगणनाके अनुसार मतदाता सूचीमें असुरोंको संख्या देवताओंसे अधिक थी। असुरोंका प्रचार और संगठन इतना व्यापक था कि उनमेसे एकका भी मत देव-प्रतिनिधिके पक्षमे जानेकी सम्भावना नहीं थी। प्रत्युत यह भी भय था कि कुछ देवता भी उन्हींके पक्षमें मतदान न कर बैठे। देवताओंकी ओरसे अधिक-से-अधिक यही प्रयत्न हो रहा था कि असुर वर्गके कुछ मतदाता तटस्थ हो जायें।
विधानके अनुसार यह व्यवस्था थी कि प्रत्येक मतदान-पत्रपर मतदाताका नाम भी अंकित हो ।
मतदान प्रारम्भ हुआ और समाप्त हो गया।
मतगणनाके लिए पेटियां खोली गयीं। अधिकारी प्रेक्षकोंको यह देखकर सबसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि असुर-प्रतिनिधिकी पेटीमे सबसे पहला मत देवगुरु बृहस्पतिका आया था। उसके अतिरिक्त समस्त असुरोंके मत असुर-प्रतिनिधिकी पेटीमें और देवताओंके देव-प्रतिनिधिको पेटीमे आये थे। असुरों और देवताओंका मतदान पूरा सौ प्रतिशत हुआ था।