Book Title: Mere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Author(s): Ravi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 142
________________ अमृतत्रयी अपने असाधारण सामर्थ्य और कौशलसे राजाने देशमें समृद्धि और वैभवकी सरिताएँ बहादीं । धन, धान्य, भवन, वाहन, सुरा, सौन्दर्य और कलाकी विविधतापूर्ण सम्पदाएँ उसके राज्य में चरम सीमापर पहुँच गयीं । किन्तु इन सबके आते-होते भी देशवासियोंके जीवनमें किसी गहरे अभाव और नीरसताकी अनुभूति थी । इस राजाने वह काम कर लिया था जिसके लिए पीढ़ियोंसे देशके राजा और प्रजा प्रयत्नपूर्वक लालायित थे । युगोंसे भूख और निर्धनतासे संघर्ष करते-करते इसी राजाके राज्यमें पूर्ण सफलता उन्हें मिली थी । राजा वृद्ध हुआ और उसके राज-भारसे अवकाश ग्रहण करनेका समय आ गया । भरी समृद्धियोंके बीचमें भी जन-जीवन में कोई गहरा अभाव शेष था और एक नयो नीरसता उसपर छा गयी थी । यह राजाके लिए कठिन चिन्ताकी सामग्री थी । फिर भी राजाने यथासमय अपने पुत्र युवराजके राज्याभिषेकके आदेश प्रस्तुत कर दिये । . युवराजने पिता से प्रार्थना की कि उसे एक वर्षका अवकाश दिया जाये । इतने समय में वह राजकुलकी परम्परामें अपने कर्तव्य भागकी खोज कर लेगा । 1 मन्त्रियोंने युवराजकी मांगका समर्थन किया और युवराज महलोंको छोड़ वनको चला गया । महलोंमें रहते हुए तरुण युवराजके लिए वैभव और विलासकी कोई भो वस्तु अनुपलब्ध नहीं थी । जिह्वा भोग और सुरा - सुन्दरियोंके सभी सुख उसे प्रचुर मात्रा में प्राप्त थे 1

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