________________
घावके नीचे देवताओं और असुरोंका संग्राम चल रहा था।
असुरोंके गुरु शुक्राचार्यके पास वह ओषधि थी जिससे वे अपने दलके योद्धाओके घाव रातभरमे अच्छे कर लेते थे।
अन्तःस्रवा असुर दलका एक प्रमुख योद्धा था। देव-दलपर सबसे अधिक मार उसीकी पड़ती थी, उसीका आतंक सबसे बड़ा था और वही प्रति साँझ सबसे अधिक व्रण अपने शरीरपर लिये युद्ध-स्थलसे लौटता था। शुक्राचार्यका सबसे बड़ा स्नेह-भाजन भी वही बन गया था और प्रति भोर युद्ध-स्थलपर जाते समय उससे अधिक निर्बण एवं समर्थ दूसरा कोई योद्धा नहीं होता था।
एक साँझ युद्ध-स्थलसे लौटकर अन्तःस्रवा गुरुकी व्रणोपचारशालामें नहीं पहुँचा । गुरुके पास जानेका साथियोंका आग्रह भी उसने अस्वीकृत कर दिया।
अगले प्रातः शुक्राचार्य स्वयं अन्तःस्रवाके विश्राम-कक्षमें आये। उसके खुले व्रण फूल रहे थे और रक्त-स्रावसे उसकी शय्या स्नात थी।
शुक्राचार्य बहुत प्रसन्न हुए । अन्तःलवाके घावोंको उन्होंने पैनी अस्थिशलाकाओंसे कुरेदा और उन व्रणोंके नीचे जीवनामृतकी कुछ बूंदें उन्हे मिल गई।
पिछली साँझतक शुक्राचार्य के पास केवल आहतोंके व्रणोपचारकी ही ओषधि थी किन्तु अब मृत सैनिकोंको भी पुनर्जीवित करनेका संजीवनामृत उनके हाथ लग गया। उस रातसे युद्धमें मरे हुए असुरोंको पुनर्जीवित