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आश्रयका मार्ग सुन्दरीने वैराग्य लिया । प्रेमियोंकी भीड़ पीछे चली। भिक्षुणी वेशमें सुन्दरीने मन्दिरमे प्रवेश किया। प्रेमी-समूह बाहर रह गया ।
भिक्षुणीने मन्त्र-सिद्धिके लिए अनुष्ठान किया। किन्तु देवताने सिद्धि की सूचना न दी। भिक्षुणीने वहीं रखा रजत-दण्ड उठा कर मूर्तिके शिर पर प्रहार किया। यह वैधानिक था । देवतामें चेतना जागो।
'क्या कहना है तुम्हें, पुत्री ?' 'मेरे अनुष्ठानकी सिद्धि क्यों नहीं हुई भगवन् ?' 'तुमने मन्दिरमें अकेले प्रवेश नहीं किया।' 'मैं तो सर्वथा अकेली आयी हूँ।'
सहसा घण्टेका गम्भीर घोष हुआ। भिक्षुणीकी सूक्ष्म आकाशीय दृष्टि खुली । उसने देखा-दाहिने उस व्यक्तिकी धूमिल आकृति है जिसके बर्बर प्रेमाक्रमणपर उसे घृणा आयी थी, बाँयें उसकी है जिसके प्रति वह आकृष्ट थी और असफल रही।
'और भी देखो !' घण्टेका फिर घोष हुआ और भिक्षुणीने देखा- . सारा स्थान उसके सहस्रों प्रेमियोंकी छायाकृतियोंसे भरा है ।
कातर हो पुकारा उसने, 'प्रभु, अपने आश्रयमें आनेका मार्ग दो मुझे !'
और देवतन द्वारकी ओर संकेत करते हुए कहा-'पहिले अपने इन प्रेमियोंसे समझौता करो पुत्री। तभी तुम एकान्त रूपसे यहाँ प्रवेश कर सकोगी।'