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सिद्धिका अन्त
एक तरुण साधक रूपकी देवीका उपासक था । एक रमणीक वनस्थली मे रूप-देवीकी सुन्दर प्रतिमाको सम्मुख रखकर वह उसकी विधिवत् आराधना किया करता था ।
अन्तमे एक दिन उसकी साधना सफल हुई । रूपदेवीकी प्रतिमाके सम्मुख ध्यानावस्थित उसने देखा – प्रतिमामें जीवनके लक्षण आविर्भूत हुए, उसके अंगोंमें चेष्टा आई और दूसरे ही क्षण उसके स्थानपर रूपकी देवी सजीव उसके सामने प्रकट हो गई । उसे लगा कि चार दिशाएँ गुणित होकर सहस्र दिशाओं में बदल गई है और उसके शरीरके उन सहस्र पार्श्वोपर उसे अक्षुण्ण यौवना रूपदेवीका अनिर्वचनीय आलिंगन सुख प्राप्त हो रहा है, सहस्र नेत्रोंसे वह उसके अनिन्द्य रूपको निहार रहा है और सहस्र मुखोंसे उसके अधरामृतका पान कर रहा है ।
'आराध्ये मेरी ! मैं चाहता हूँ कि तुम क्षण भरको भी अब कभी मुझसे विलग न हो। तुम सदैव इसी प्रकार मेरी अंग-संगिनी - ' युवकने मन-ही-मन अपनी उपासिता देवीसे कहना प्रारंभ किया और उसकी बात पूरी होने के पहले ही वहु देवी अपने समस्त स्पर्शो के साथ अन्तर्धान हो गई !
युवककी संवेदनापर हठात् वज्रपात हुआ । तिलमिलाकर उसने आँखें खोल दीं । सामने प्रतिमाके स्थानपर रूपकी देवी साकार, सजीव अब भी उपस्थित थी । उसके मुख और नेत्रोंमें अब मुग्धतापूर्ण आकर्षणके स्थानपर एक सौम्य करुणाकी मुद्रा उतर आई थी । देवीके होंठ हिले और युवककी कातर दृष्टिका उत्तर देते हुए उसने कहा
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'मेरे मिलनके निर्बाध स्पर्शमे ही तुमने विछोहकी कल्पनाको लाकर मेरे प्रयत्नको विफल कर दिया है। मुझे दुःख है, हम दोनों—तुम और मैं- अभी एक दूसरेके लिए उपयुक्त नहीं हैं !'