________________
अनबिक मोती
१०५
वरुणदेवने उसके सन्देहको भ्रम-जनित बताते हुए परामर्श दिया कि वह धैर्य-पूर्वक अपनी अक्षोभकी साधनामे संलग्न रहे और फलको प्रतीक्षा करे।
वरुणके वचनोंपर पोखरका विश्वास पूरा था। उसकी अक्षोभकी साधना चलती रही। अपनी रात्रि-कालीन सम्पदाको देख-देखकर अब उसके मनमे स्वतः समृद्धिको भावना प्रबल होने लगी।
धीरे-धीरे समुद्रके सब मोती समाप्त हो गये । समुद्र पारकी जिस परम समृद्ध महासुन्दरी रानीके हाथों वे पनडुब्बे अपने मोती बेच आया करते थे वह स्वयं समुद्र और इस पारके देशके निरीक्षणके लिए अपने पोतपर सवार होकर निकल पड़ी।
सेवकों-परिचारिकाओंके साथ इस पारको भूमिका दृश्य-दर्शन करती एक साँझ वह इस पोखरके तटपर आ पहुँची। प्रशान्त जलपर छितरे नभ-तारकोंका प्रतिबिम्ब देखकर वह इसके सौन्दर्यपर मोहित हो गई। पार्थिव मोतियोंसे ये अस्पृश्य मोती कहीं अधिक सुन्दर और सजीव थे।
पोखरमें जल-विहारके लिए उसने अनेक सुन्दर नौकाएँ डलवा दीं और मनोरम भवनोंके एक सुनिर्मित वृत्तने उस जलाशयको अपनी बाँहोंमें घेर लिया। अपने प्रशान्त जलमे दिन-भर अगणित मानवोंका क्रीडोल्लास भरे, और रात्रिकी निस्तब्धतामें आकाशको सुदीप्त सम्पदा समेटे वह पोखर आज मानवोंका एक महान् पुष्कर तीर्थ बना हुआ है।
उसका सन्देश है कि बिकनेवाले मोतियोंका मूल्य कुछ कालके लिए भले ही अधिक लगा लिया जाय किन्तु अस्पृश्य, अनबिक मोतियोंकी मूल्यमत्ता ही वास्तवमें सर्वोपरि एवं स्थायी है और सृजनका सामर्थ्य भी इन्हींमें निहित है, और उद्विग्न चंचलतामें नहीं, प्रशान्त स्थिरतामे ही उनका उपार्जन किया जा सकता है।