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अमृतके प्याले बात बहुत पुरानी नहीं है । मनुष्यों और देवताओं के बीच युगानुयुगसे टूटा हुआ सम्बन्ध जब पुनः स्थापित हुआ और उनके पारस्परिक व्यवहार यथेष्ट स्नेह-सहयोग-पूर्ण हो गये तब देवताओंने निश्चय किया कि वे अपनी सर्वश्रेष्ठ वस्तु अमृतमे भी मनुष्यका हिस्सा लगायेंगे । फल-स्वरूप अपने स्वर्गसे अमृतकी एक धारा, पातालकी राह लाकर उन्होंने पृथ्वीके एक सुरक्षित एवं अपेक्षाकृत दुर्गम-से स्थलपर उसका स्रोत खोल दिया। मानव-जातिके कुछ समर्थ एवं अधिकारी जनोंको चुनकर उन्हें वे उस अमृत-स्रोत तक ले गये और उस अमृतको पीकर वे मानव-जन भी देवताओंकी भाँति अमर-अजर हो गये। __ये अमर मानव मानव-बस्तियोंमे लौटकर उस अमृत-स्रोतकी सूचना लोगों तक पहुँचाने लगे, और वहाँ तक उनका पथ-प्रदर्शन करनेका भी कुछ भार उन्होंने अपने ऊपर उठा लिया। इनके पथ-प्रदर्शनमें मनुष्योंकी एक बड़ी संख्याने उस अमृत-स्रोतकी ओर प्रस्थान किया और उनमेसे कुछ और भी लोग वहाँतक पहुँचकर अमृत-पान द्वारा अमर बन गये।
मानव-जाति द्वारा अमृत-पानका यह क्रम अबाध, किन्तु बहुत धीमी गतिसे चलता रहा और दूसरी ओर मनुष्योंकी लौकिक उन्नतिका क्रम विशेष वेगके साथ आगे बढ़ा। __कुछ ही समय बाद अपने नये आविष्कृत साधनों द्वारा उन्होंने प्रकट रूपमें उस अमृत-स्रोतको खोज निकाला.और वहां तक पहुँचने योग्य एक संकरा-सा किन्तु सुगम मार्ग भी बना लिया।
इस समय तक उनकी लोक-बुद्धि बहुत जागृत हो चुकी थी और वे प्रत्येक वस्तुको कम-से-कम श्रम और मूल्यमे पा लेनेका महत्त्व जान गये थे।
प्रत्येक मानव-बस्तीके लोगोंने अपने नगरके एक-एक व्यक्तिको चुनकर