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खोजकी माया मेरी असाधारण, अदम्य साधनाओंसे विवश होकर ईश्वरको अन्तमें अपना एक दूत मेरे पास भेजना ही पड़ा।
ईश्वरका निमन्त्रण लिये वह मेरे घर आया और मुझे लोक-लोकान्तरों की राह उसके निजी महलोंमे ले गया।
जबख्त, मलकूत, लाहूत, हाहूत, हूतलहूत आदि राहके सभी लोकलोकान्तरोके नाम मैंने अपनी डायरीमे लिख लिये और उनके अनेक स्थलोंके फोटो भी खींच लिये । लोक-लोकान्तरोंके ये नाम मेरे लिए नये केवल इसलिए थे कि वह देवदूत अपने पिछले मानव-जन्मके दिनोंमें किसी ईरानी सूफ़ी सन्तका शिष्य था और लोक-लोकान्तरोंके नाम उसी देशकी भाषामें जानता था। _____ उस दिन ईश्वरके महलोंसे उसका यथेष्ट स्नेह-सत्कार पाकर मैं अपने घर लौटा। ____ अगले दिन मैं अकेले ही लोक-लोकान्तरोंकी राह उसके महलोंकी ओर चल पड़ा। लोकोंके नाम, राहकी दिशाओंके संकेतों सहित मेरी डायरीमें, और मोड़ोंके विविध स्थलोंके चित्र मेरे अलबममे मौजूद थे।
लेकिन कह नहीं सकता, कहाँ-कैसी भूल हुई मै ईश्वरके महलों तक नहीं पहुंच पाया। निराश हो, मुझे अपने घर लौटना पड़ा।
पहले दिनके अनुसार ईश्वरके महलों तककी यात्रा केवल आधे दिनको थी । अब मैं प्रतिदिन सबेरे घरसे निकलता, दोपहर बीते तक ईश्वरके महलोंकी राह खोजता और निराश हो, तीसरे पहर अपने घरकी ओर लौट पड़ता । निराशा और थकान लिये मेरी रात नीदमें कट जाती।
होते-होते इसी क्रममें मेरे जीवनको अन्तिम साँझ भी आ गई। उस रात मैंने अपना घर सदैवके लिए छोड़ दिया।