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मेरे कथागुरुका कहना है मनुष्योंकी व्याकुलता और अशान्ति बढ़ती गई। वे अब स्वयं इस दुःख से बचनेका उपाय खोजने लगे।
अन्तमें एक मनुष्यने इसका उपाय खोज ही लिया। उसने अपने एक साथीको इस बातके लिए तैयार कर लिया कि वह एक दिनके लिए अपना भी बोझ उसे दे दे।
उस दिनकी यात्रा उस मनुष्यने दुगने बोझके साथ पूरी की, लेकिन उसके साथीने पहली बार अपने भारसे मुक्त होकर पूर्ण निर्भरता और असाधारण सुखका अनुभव किया। दिनभरकी यात्रामें उसका साथी बराबर उसका हाथ अपने हाथमें लिये रहा, अन्यथा उस भारमुक्त व्यक्तिका पृथ्वीपर टिकना कठिन था।
अगले दिनको यात्रामे दूसरे मित्रने पहलेका भी बोझ ढोया और उसे भार-मुक्तिका सुख चखनेका अवसर दिया। इस प्रकार 'दुःख' की दुनियामें आनन्द नामके विशुद्ध स्वर्गिक सुखकी अनुभूति इन दोनों मित्रोंने मिलकर कर ली। ___ आगे चलकर इन दोनों मानव-बन्धुओंकी देख-रेखमें ऐसी व्यवस्था हुई कि दूसरोंका बोझ उठानेवाला एक वर्ग ही मानव-जातिमें बन गया।
धीरे-धीरे यह भार-वाहक वर्ग अपने श्रमाभ्यास द्वारा इतना समर्थ हो गया कि इनमेमें एक-एक व्यक्ति सैकड़ों-हज़ारों व्यक्तियोंका भार अपने ऊपर उठाकर उन्हें भारहीनताके सुखको अनुभूतिका अवसर देने लगा। कहते हैं कि इस प्रक्रिया द्वारा उन समर्थ मनुष्योंमे बिना उस भारके भी पृथ्वीपर स्वेच्छानुसार टिके रहनेकी एक नई शक्ति जाग उठी है, और इस क्रमसे एक दिन वह भी आ सकता है जब मानव-जातिके सभी व्यक्ति बिना किसी भार (दुःख) के इस पृथ्वीपर रहने योग्य हो जायेंगे।
कुछ खोज-समर्थ इतिहासकारोंका अनुमान है कि मानव-जातिके इन दो सर्वप्रथम मनुष्योंके नाम गौतम बुद्ध और मैत्रेय है ।