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मेरे कथागुरुका कहना है घरसे बाहर निकल कर मैं निरुद्देश्य उसके द्वारपर आ खड़ा हुआ। ईश्वरके प्रति मेरा प्रेम अवश्य था, किन्तु उसके महलोकी ओर बढ़नेका कोई उत्साह मेरे मनमे शेष न रह गया था। ___ अचानक अपने कन्धेपर एक स्पर्शका अनुभव पा कर मैने मुड़कर देखा, ईश्वर ही साक्षात् मेरे सामने उपस्थित था । - मेरे उलाहनेका उत्तर देते हुए उसने कहा
'नहीं! पहली भेंटके दिनसे बराबर नहीं, केवल उतने ही समयके लिए मुझे तुमसे अलग रहना पड़ता था जितने समय तुम मेरे महलोंकी खोजमें लगे रहते थे।'
और तब ध्यान देनेपर मैने देखा कि सचमुच एक बार मिलनेके पश्चात् राह और दूरीका अस्तित्व केवल एक भ्रम ही था।