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मेरे कथागुरुका कहना है
९८,२०० मुद्राओंका ऋणी था। पहले ९७० व्यक्ति वे थे जिन्होंने उसकी याचनापर उसे कुछ भी नहीं दिया था और बीस वे थे जिन्होंने आंशिक रूपमे उसकी प्रार्थना स्वीकार की थी। _ 'भूलोकमे जब कोई याचक किसी याच्यसे कोई ऐसी वस्तु माँगता है, जो याच्यके पास देने योग्य मात्रामें विद्यमान होती है तो तुरन्त ही वह याचक याच्यका उस वस्तुका ऋणी हो जाता है । यदि याच्य वह वस्तु उसे दे देता है तो सहज लोक-दृष्टिमे वह याचकको अपना ऋणी बनाता ही है और उसका लेन-देन वहीं उनके पारस्परिक दान और कृतज्ञताके विनियोग-द्वारा बराबर हो जाता है, किन्तु यदि नहीं देता तो याच्यकी स्वर्गिक सम्पत्तिमेसे तुरन्त ही उस वस्तुके बराबर सम्पत्तिका क्षय हो जाता है, और इस प्रकार भी वह याचक उस याच्यका ऋणी हो जाता है'-प्रधान लिपिकने याचकके सम्बन्धमे स्वर्गके नियमका स्पष्टीकरण करते हुए आगे कहा-'इस व्यक्तिके कारण इन ९९० व्यक्तियोंके स्वर्ग बैंकमेसे ९८, २०० मुद्राओंकी क्षति हुई है , इसलिए यह इतनी सम्पत्तिका देनदार है।'
'मैं इन ९९० व्यक्तियोंका ऋणी नहीं हूँ। स्वर्गके करैंट बैकसे ऊपरके रिजर्व बैंकसे दो लाख मुद्राएँ मैं उन्हे दे चुका हूँ और इस प्रकार मैं उनका ९८, २०० मुद्राओंका ऋणी नहीं हूँ बल्कि १,१०,८०० मुद्राओंका दान ही मैंने उन्हें किया है।'
उस व्यक्तिके इस दावेकी तुरन्त जाँच हुई। सचमुच इन एक हजार व्यक्तियोंके नये खाते स्वर्गके ऊँचे रिजर्व बैंकमें खुल गये थे और उनमें दो-दो सौ मुद्राएँ प्रत्येकके नाम जमा थीं। न्यायालयमे निमंत्रित उन एक सहस्र व्यक्तियोंने आश्चर्यके साथ देखा कि जिन काग़ज़के टुकड़ोंपर उसने उन्हे सौ-सौ मुद्राओंकी याचनाके लिए पत्र लिखे थे वे वास्तवमें पीठकी ओर इस बड़े बैंकके छपे हुए चेक-पत्र ही थे और उनपर दो-दो सौ मुद्राएँ उनके पास याचकके हस्ताक्षरोके साथ लिखी हुई थीं। स्वर्गिक