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मुक्तिकी ओर विधाताने इस पृथ्वी-लोककी रचना जब पूरी कर ली तो स्वर्ग-लोकके कुछ निवासियोंके मनमें यहाँ बसनेकी इच्छा हुई। यह पृथ्वी-लोक अपनी विशिष्ट स्थूलताके कारण स्वभावतया दूसरे लोकोंसे कुछ अधिक सुन्दर भी बन गया था। स्वर्गके जो निवासी यहाँ आनेके लिए तैयार हुए उनकी आगे चलकर एक अलग जाति बन गई और वह मानव-जातिके नामसे पुकारी जाने लगी।
पृथ्वीपर आनेके लिए उन्हे अपने नव-निर्मित शरीरों पर लाखों मनका स्थायी बोझ लेना पड़ा। बिना इस बोझके उनके शरीरोंका पृथ्वीपर टिकना कठिन था । स्वर्गके आकर्षणको कम करनेके लिए इतने बोझकी आवश्यकता अनिवार्य थी।
इस बोझका नाम आगे चलकर दु:ख रख दिया गया। यह एक पारभौतिक और बादमें भौतिक रूपमे भी स्वीकृत तथ्य हो गया कि इस 'दुःख' के बिना कोई संसारमें नहीं रह सकता।
कुछ युग बीतनेपर इस दुःखने मनुष्यके जीवनको अत्यंत एकरस और नीरस बना दिया। इस दुःखके कारण मानव-जन भू-लोककी सुन्दरताओंको देखने-बरतने में असमर्थ होने लगे। ____मनुष्योंने विधातासे प्रार्थना की कि वह इस बोझको उनके सिरसे हटा ले या कुछ कम कर दे।
किन्तु विधाता ऐसा नहीं कर सकता था। पृथ्वी-निवासियोंका एक रत्ती भी बोझ घटानेसे ब्रह्मांडके ग्रह-नक्षत्रोंका सन्तुलन बिगड़ कर प्रलय हो जानेका भय था।
आजका भौतिक विज्ञान भी कहता है कि मनुष्यके शरीरपर वातावरणका दबाव प्रति इञ्च १५ पौंडके हिसाबसे बराबर रहता है।