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करने के लिए तपस्या की जाती है। तपस्या करके भीतर के तमोगुण, रजोगुण और मनोविकारों के कर्दम से बाहर निकलने का प्रयत्न होता है।
संत या मुनि महाराज बनने मात्र से कोई मुक्त नहीं हो जाता । मुक्त तो केवल वे ही हो पाते हैं जिनको भीतर का बोध जग जाता है, जिन्हें भीतर में उधर की पुकार सुनाई दे जाती है। जिन्हें उधर के किनारे की प्यास हो, तड़पन हो, वे ही लोग उस ओर कदम बढ़ा सकते हैं। मुक्ति के मार्ग की बातें सुन लेने से कुछ न होगा। त्याग की बातें करने से क्या मिलेगा ? त्याग का आदर्श उपस्थित करना होगा तभी सामान्य जन पर उसका प्रभाव होगा। भलाई के मार्ग को खुद के साथ जोड़ना होगा तभी सर्व साधारण पर उसका प्रभाव होगा। भलाई के मार्ग को खुद के साथ जोड़ लिया तो साधना बन जाएगा और दूसरों के साथ जोड़ लिया तो परमार्थ हो जाएगा। महावीर का मार्ग तो जीतने का मार्ग है, खुद को
और खुद के स्वार्थों को, स्वयं के मोह-विकारों को जीतने का मार्ग है। महावीर की बातें तो गीता का शंखनाद है। जागें तभी सवेरा । सूरज उगने से सवेरा नहीं होता, सूरज तो रोज ही उगता है, मगर हम रोज ही सोए रहते हैं। सवेरा तब नहीं जब सूरज उगता है वरन् सवेरा तब है जब हम जगते हैं। अगर हम अमावस की रात में भी जग जाएँ तब भी सवेरा हो जाएगा।
कहते हैं - गुरु नानकदेव को, आधी रात में प्रभु से मिलन हुआ, प्रभु का प्रकाश मिला। बताएँ, नानक के लिए सवेरा कब हुआ ? सूरज उगा तब या प्रकाश मिला तब ? ज़रूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति संत बन गया तो सवेरा हो ही गया है। संत बनने के बाद भी सवेरा कई सालों के बाद हो सकता है। यह तो ईश्वर जिसके जीवन में सवेरा चाहता है उसके जीवन में सवेरा होता है। प्रभु के अनुग्रह के बिना, उनकी अनुपम कृपा के बिना फूल खिल नहीं सकता, प्रकाश उपलब्ध हो नहीं सकता। इसलिए चाहने के नाम पर प्रभु का अनुग्रह चाहो, करने के नाम पर प्रभु की प्रार्थना करो, धरने के नाम पर प्रभु का ध्यान धरो, प्रभु से अपनी लौ लगाओ, ईश्वर के साथ जिओ । यही वह बंदगी है जो हमें बंधनों से मुक्त करती है।
एक संत भगवान का कीर्तन करते हुए रास्ते से आगे बढ़ता जा रहा था कि अचानक सामने से एक युवक आया और संत से टकरा गया । संत ने गालियाँ दे
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