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पुप्फयंतविरइउ महापुराणु
( हिन्दी अनुवाद)
सन्धि १९
धरतीका परमेश्वर भरतेश्वर विचार करता है कि यदि संयत चित्तवाले सुपात्रोंको दिनप्रतिदिन यह नहीं दिया जाता तो धनका क्या किया जाये ?
एक दिन राजाओं को अपने पैरों में झुकानेवाले उस पृथ्वीश्वरने अपने मनमें विचार किया, "क्या आकाश चन्द्रमाके बिना शोभा पा सकता है? क्या नकटा मुंह शोभा देता है, क्या उपशम भावक बिना शान शोमा देता है ? क्या पराक्रमके बिना राज्य शोभा देता है ? क्या पुत्रविहीन कुल शोभा पाता है ? क्या एका हुमा कड़वा फल शोभा पाता है ? क्या भीरु व्यक्तिको गर्जना शोभा पाती है ? क्या वेश्याको लज्जा शोभा पाती है ? क्या मृतकके आभूषण शोभा पाते हैं ? क्या अविनीतका रूठना शोभा पाता है ? क्या हिमसे आहत कमलवन शोभा पाता है ? क्या जलविहीन घन शोभा पाता है? क्या दूसरों के अधीन जीववाला मनुष्य शोभा पाता है ? क्या तष्णा रखनेवालेका धन शोभा पाता है ?
घत्ता-बुधजनोंका कहना है कि जो धन गुणवान बुद्धिवान् सुपात्रको नहीं दिया जाता, मनुष्यका वह संचित धन पापका कारण है और मरनेके बाद वह एक पैर भी नहीं जाता ।। १ ।।
(कृपण व्यक्ति ) न नहाता है, न लेप करता है, और न वस्त्र पहनता है, सघन स्तनोंवाले स्त्रीसमूहको भी नहीं मानता। जिसके पास, जो के डण्ठलोंवाले तुषके भारसे युक्त, कठोर कुलथीके कण और एक द्रोणी अलसीका तेल है, ऐसा कंजूस व्यक्ति अपने लोगोंको निकालकर रहता है। अपने मनमें व्यापक लोभ धारण कर, वह बड़े भारी महोत्सवके दिन दीनको तरह खाता है। लोगोंको प्रिय लगनेवाले पात्रको हाथमें लेकर ऋण मांगता हुआ नगरमें घूमता रहता है । अत्यन्त सड़ी हुई सुपाड़ीको वह इस प्रकार खाता है कि जिससे एक सुपाड़ीमें हो सारा दिन समाप्त हो