Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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हुए कवि के निजी व्यक्तित्व को सर्वथा उपेक्षित एवं तिरोहित कर दिया था अनुकृति सिद्धान्त के अनुसार कला प्रकृति की अनुकृति है इसका तात्पर्य है कि कला का सौन्दर्य प्रकृति के सौन्दर्य की ही अनुकृति मात्र है ऐसी स्थिति में कलाकार का क्या योगदान है। केवल अनुकृति प्रस्तुत कर देना तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं हैं। लौंजाइनस ने अनुकृति सिद्धान्त की सर्वथा उपेक्षा करते हुए कवि के व्यक्तित्व की विशिष्टिता एवं रचना की मौलिकता का प्रतिपादन किया जो उसकी नूतन दृष्टि का प्रमाण है। वस्तुतः जहाँ प्लेटो घोर 'आदर्शवादी था अरस्तू वस्तुवादी या यर्थाथवादी वहाँ लौंजाइनस स्वछन्दतावादी ( रोमांटिक) था। पाश्चात्य परम्परा में कवि व्यक्तित्व को महत्व प्रदान करने के कारण ही लौंजाइनस को पहला रोमांटिक आलोचक माना जाता है जो ठीक ही है।
दूसरे औदात्य सिद्धान्त की प्रतिष्ठा भी सर्वप्रथम लौंजाइनस द्वारा हुई । आगे चलकर विभिन्न पाश्चात्य आलोचकों एवं कला - मीमांसको ने कला के दो प्रमुख तत्वों के अन्तर्गत् सौन्दर्य एवं औदात्य को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है तथा कान्ट, हीगल, कैरिट सैतायन प्रभृति - सौन्दर्य - शास्त्रियों ने इनकी विस्तार से मीमांसा की है वस्तुतः आधुनिक कला-समीक्षा में अरस्तू के अनुकृति - सिद्धान्त की अपेक्षा औदात्य को ही अधिक महत्व प्राप्त है।
तीसरे लौंजाइनस का दृष्टिकोण जितना गम्भीर है उनका विवेचन-विश्लेषण भी उतना ही सूक्ष्म एवं व्यापक है, वे औदात्य को एक व्यापक रूप प्रदान करते हैं, कि उसके अन्तर्गत् कवि का व्यक्तित्व विचार-तत्व, भाव - तत्व, शैली का अलंकरण, शब्द चयन रचना के गुण-दोष आदि सभी प्रमुख तत्व समाविष्ट हो जाते हैं। वे रचना की सर्जना - प्रक्रिया से लेकर उसकी आस्वादन - प्रक्रिया तक की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसके सभी महत्वपूर्ण पक्षों की व्याख्या सर्वथा - नूतन, मौलिक एवं प्रौढ़ रूप प्रस्तुत करते
हैं ।
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