Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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तुमहिं लागि धरिहौं मुनि बेसा। हरिहऊँ सकल भूमि गरूवाई निर्भय होउ देव समुदाई।।"
जब यह प्रसंग हमारे ध्यान में रहेगा, तो निराला का आवेग औदात्य कुछ आसानी से समझ में आएगा, क्योंकि यहाँ भी कविराट् तुलसी के प्रयास से वे ऋषिगण-सज्जन बिगुण हर्षित है
"सुना उर ऋषियों का ऊना, सुनता स्वर, हो हर्षित दूना।
आसुर भावों से जो भुना, था निश्चल"2 लौंजाइनस काव्य के मूल्यांकन का अधिकारी उसे मानता है जिसमें अनुभव की परिपक्वता हो, उसके लिए जरूरी है कि वह शैली तथा संघटन की उन विशेषताओं की उद्घाटित कर सके, जो उदात्तता के आधार-भूत साधन हैं। निराला ने अपने काव्य के माध्यम से जो उदात्तता हम पाठक तक पहुंचायी है उसे इस महाकवि ने न सिर्फ अनुभव किया था, अपितु बहुत नहीं तो कुछ अंश जिया भी था। यह कवि के काव्य की विशेषता ही रही है कि उनका काव्य चाहे यर्थाथवादी हो चाहे व्यक्तिवादी, या सामाजिक यथार्थ हो या वैयक्तिक दुखाःनुभूति रही हो निराला जी अपने आत्म-विश्वास की दृढ़ता, आवेग-मूलक भयंकरता एवं अभेद अखण्डता की दृष्टि को औदात्य के रूप में पिरोने का एक सफल प्रयास किया है। लौंजाइनस के अनुभव की परिपक्वता का भाव स्पष्ट है जो उस परिस्थिति को जाँचा-परखा हो या यों कहें कि वास्तविक जीवन में भी अनुभव किया हो, कवि की जीवन-शैली भी कुछ उसके उदात्तरूपी काव्य से भी मेल खाती थी।
1. तुलसीदास : निराला रचनावली भाग(1) 2. सन्दर्भ : रामचरित मानस