Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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"समुचित अलंकार-योजना"
लौंजाइनस के अनुसार मात्र चमत्कार प्रदर्शन के लिए अंलकारों का प्रयोग नहीं होना चाहिए, यह अधिक उपयोगी तब होगा जब अर्थ को उत्कर्ष प्रदान करे, और मात्र चमत्कृत न करके पाठक को आनन्द प्रदान करे। अलंकार सर्वाधिक प्रभावशाली तब होता है जब इस बात पर ध्यान ही न जाए कि वह अलंकार है। अलंकार का शाब्दिक अर्थ है सुशोभित करने वाला या वह जिससे सुशोभित हुआ जाता है। इन दोनों अर्थो मे परस्पर थोड़ा अन्तर है, पहला अर्थ जहाँ अलंकार को कर्ता या विधायक सूचित करता है वहाँ दूसरे अर्थ में वह साधन मात्र रह जाता है काव्यशास्त्र में अलंकार इन दोनो अर्थो में प्रयुक्त हुआ है। जहाँ वामन, भामह आदि ने अलंकार को व्यापक-अर्थ में ग्रहण करते हुए सौन्दर्य के पर्यायवाची के रूप में ग्रहण किया है वहाँ पर काव्य को सुशोभित करने वाला माना गया है। किन्तु जहाँ तक संकुचित अर्थ में विशिष्ट कथन शैलियों के रूप में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ वह काव्य-सौन्दर्य का साधन मात्र रह गया है।
"युवते रिवरूप मक काव्यं, स्वदते शुद्वगुण तदत्यवीत।
विहित प्रणय निस्न्तराभिः, सदलंकार विकल्पनाभि ।।" अर्थात् काव्य-युवती के रूप में समान है, वह शुद्ध गुण युक्त होने पर रूचिकर तो होता ही है तथापि रत्न आभूषणों से सज्जित हो जाने पर रसिक जनो को अन्यन्त आकर्षण प्रतीत होती है। उसी प्रकार गुण-युक्त काव्य भी अलंकारों से युक्त हो जाने पर काव्य मर्मज्ञों के चित्र को अत्यन्त आह्लाद प्रदान करता है। डॉ0 श्याम सुन्दर दास ने अलंकार की परिभाषा करते हुए लिखा है कि भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप-गुण और किया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति अलंकार है।
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