Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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दोष का परिहार हो जाता है। यहाँ रचनाकार की सिर्फ कवि दृष्टि है। जब रचनाकार किसी का वर्णन करता है तो उसके सर्वांग चित्रण में उसकी दृष्टि उलझती है। तारूण्य का भाव सौन्दर्य के कारण आया है । कवि उसके सौन्दर्य को रूपायित करना चाहता था । सौन्दर्य को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। कवि के रूप में निराला जी की कविता पूरी तरह दोष-मुक्त है। पुत्री का वर्णन करते समय निराला जी के मन में वात्सल्य रस आया वात्सल्य का चित्र खींचते-खींचते यौवन का चित्र आया तो वात्सल्य कट गया तो सम्पूर्ण चित्र एक सफल रचनाकार का हो गया । वात्सल्य और श्रृंगार का समवेत चित्रण अमनोवैज्ञानिक है यहाँ पर कवि पिता नहीं रचनाकार का रूप हो जाता है। क्योंकि वात्सल्य एवं श्रृंगार दुरभि सन्धि की प्रतीक है । वहॉ जाते-जाते कवि की दृष्टि सौन्दर्य पर जुड़ गयी। उस समय कवि के सामने सरोज नहीं थी बल्कि कवि एक नवयुवती का चित्र खींच रहा है। क्योंकि रस की दृष्टि में साधारणीकरण हो गया। रचनाकार पिता नहीं रह गया लड़की एक सामान्य युवती और निराला रूपी पिता कवि रूपी 'निराला' हो गया।
अपनी ही पुत्री के सौन्दर्य को काव्य में तिरोहित करना सहज बात नहीं हो सकती । सरोज के सौन्दर्य का रेखांकन जिसमें वात्सल्य की लहरिल धारा प्रवाहित हो रही हो और यौवन का सौन्दर्य भी झाँकता हो, ऐसा चित्र कवि निराला ही खींच सकते हैं । पुत्री की यौनोचित चंचलता को नववीणा पर 'मालकौश' राग के कोमल स्वरों के झंकृत जैसा बिम्ब देकर कवि ने जिस उदात्त भाव का परिचय दिया है वह अन्यत्र संभव नहीं है सरोज के सौन्दर्य में सम्पूर्ण आकाश और पृथ्वी तथा पृथ्वी के अनेक सर्जनात्मक आयाम मानों एक साथ समाहित हो गए हों । इनको पढ़ने पर कवि वर बिहारी की यह पंक्तियाँ बरबस खींचती हैं:
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