Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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क्यों न हो अंततः उसे अध्यात्य एवं देवत्व के आगे विनत-विनम्र होना ही पड़ता
है।
अभेद एवं अखण्डता की दृष्टि
कवि तात्कालिक वैमनस्यता एवं कटुता तथा जाति के नाम पर धर्म के नाम पर आपसी टकराव को समाप्त करके राष्ट्र के नव-निर्माण में जुट जाने का आह्वान करता है
"हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न । छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न, यह अकल-कला गह सकल छिन्न, जोड़ेगी, रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन संचित कर करता है वर्षण
लहरा भव-पादव-मर्ष-मन मोड़ेगी।।" कवि का विश्वास है कि विभिन्न जातियों, धर्मो के बीच जो भेद की दीवारें खड़ी हैं वे टूट जाएँगी। तुलसी की ईश्वरीय कला सभी को परस्पर एकता के सूत्र में आवद्ध करेगी। जैसे सूर्य की किरणें एक-एक बूंद जल खींचकर बादल बनाती है उसकी वर्षा में मुाए प्राणों की हरीतिमा लौट आती है। उसी प्रकार तुलसी का नाना-पुराण निगमागम-सम्मत ज्ञान ऐसे 'मानस' की पुष्टि करेगा जिसके प्रभाव से धरती पर मूल्य एवं नैतिकता का साम्राज्य पुनः स्थापित होगा। यहाँ निराला के इस रविकर ज्यों-ज्यों, विन्दु-विन्दु जीवन पर महाकवि कालिदास के रघुवंश की ‘सहसगुण मुत्स्रष्टुम आदत्ते हि रसं रविः' जैसी पंक्तियों का स्पष्ट प्रभाव दिखायी पड़ता है इस धरती पर आसुरी
1. 'तुलसीदास': निराला रचनावली पृष्ठ-306 ‘सुधा मासिक : रचना 1943'
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