Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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का संकेत और भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि का पराभव को कवि ने देखा, लोग अधर्मी होते जा रहे थे। इस काव्य के माध्यम से तात्कालिक शासन व्यवस्था पर कवि ने करारी चोट की है। 'निराला' के 'तुलसी' में संस्कृति की सर्जनात्मकता के प्रश्न को उठाने वाली 'मानसिकता' संस्कारशील शब्दों में मैत्री करती है । छन्द की मौलिक प्रकृति और उसका कसाव, शब्दों के जटिल रूप, सूक्ष्म - गम्भीर कल्पनाएं इस काव्य को सामान्य की चिन्ता में विशिष्ट बना देती हैं। कवि के शाब्दिक स्वेच्छाचार या दूसरी तरह से कहना चाहें तो भाषागत् अभिजात्य का 'राम की शक्तिपूजा' से भी अच्छा उदाहरण 'तुलसीदास' में देखा जा सकता है। क्योंकि यहाॅ कवि संस्कृत के कोशवाची शब्दों का भरपूर उपयोग करता है, इतना ही नहीं, उनमें यथोच्छित अर्थ भी अनुस्यूत करता है ।
"अब, धौत धरा, खिल गया गगन,
उर-उर को मधुर, तापप्रशमन
बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन ।
झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण
पृथ्वी के अधरों पर निःस्वन
ज्योतिर्मय प्राणों के चुंवन, संजीवन ।। "
'कुकुरमुत्ता' में भाषा का अति- यर्थाथवादी धरातलः - शब्दों के अभिजात संस्कार का इतना दूरगामी उपयोग के बाद 'कुमुरमुत्ता' (1942 ) की रचना अपने आप में एक सुखद आश्चर्य है । 'कुकुरमुत्ता' जन - सामान्य से रची-बसी भाषा में घोषणापूर्वक रचनात्मक उपयोग की शुरूआत करता है। सत्य बात तो ये है कि निराला ने भाषा के प्रयोग में अपना आदर्श - गुरू, पंडित " अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध” को बनाया । उपाध्याय जी ने जहाँ 'प्रिय - प्रवास' में रूपोद्यान प्रफुल्लपाय,
1. "तुलसीदास : निराला रचनावली भाग (1) पृष्ठ-283
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