Book Title: Lonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Author(s): Praveshkumar Sinh
Publisher: Ilahabad University
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आमूल परिर्वतन के लिए कान्ति का आह्वान करते हैं, तो कभी प्रिया के प्रति प्रणय निवेदन:
"मैं! न कभी कुछ कहता, बस तुम्हें देखता रहता। चकित थकी चितवन मेरी रह जाती, दग्ध हृदय के अगणित व्याकुल-भाव!
मौन दृष्टि की ही भाषा कहलाती ।" सर्जना का प्रथम सोपान:- निराला की काव्य-सर्जना का प्रथम सोपान 'अनामिका' के रूप में दिखाई देता है, जो बालकृण्ण-प्रेस कलकला से '1923' के उत्तरार्द्ध में श्री 'नवजादिकलाल श्रीवास्तव' ने प्रकाशित किया था। साहित्य-साधना की दृष्टि से यह संकलन निराला का प्रस्थान-बिन्दु है। यह अनुभव व अभिव्यक्ति की अनेकमुखी प्रकृति के कारण उनकी आगामी व्यापक काव्य-चेतना की ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है। विशेषतः अन्य समान-धर्मा कवियों प्रसाद, पन्त, महादेवी की आरम्भिक कविताओं के कच्चेपन की तुलना में 'अनामिका' के कवि की भाषिक सर्जनात्मकता स्पृहणीय है। 'परिमल' में निराला की काव्य-साधना का स्वरूप:- कवि की सर्जना का दूसरा सोपान 'परिमल' में दिखाई देता है जो सितम्बर '1929' में प्रकाशित हुई थी, 'परिमल' में कवि मिथिकीय अंश को नए परिपेक्ष्य में विश्लेषित किया। ग्वाल कवि परम्परा से बँधे निराला ने परम्परा अमुक्त चिन्तन का प्रसार और नयी दृष्टि का विनियोग किया है। यों तो 'परिमल' में प्रायः भाषा के तत्सम् रूप का प्रयोग हुआ है। किन्तु "जमुना के प्रति" जैसी लक्षणा प्रधान अलंकारिक कविता के अपवाद के साथ लगभग सभी श्रेष्ठ कविताएं समास, शिल्प-योजना की आग्रही नहीं हैं। 'जमुना के प्रति' कविता उक्ति–वैचित्र्य और विशेषण बहुलता के वावजूद वास्तविक जीवन
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