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आवासय ठाणादिसु पडिलेहण वयण गहण णिक्खेवे । सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति ॥ ४१४ ॥ भ.आ.
अर्थात् आवश्यक स्थान आदि में प्रतिलेखन, वचन, ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, बिहार एवं भिक्षा ग्रहण में परीक्षा करते हैं ।
" आगन्तुको यतिगुरुमुपाश्रित्य सविनयं संघाटक दानेन भगवन्ननु ग्राह्योऽस्मीति विज्ञापनं करोति । ततो गणधरेणापि समाचारज्ञो दातव्यः संघाटक इति निगदति" भ.आ.पू. ३१७
अर्थात् आने वाला यति गुरु के समक्ष बिनय सहित निवेदन करता है कि भगवन् सहाय्य प्रदान कर मुझ पर अनुग्रह करें। उसके पश्चात् आचार के ज्ञाता आचार्य भी उस आगन्तुक यति को सहायता देते हैं ।
इस प्रकार परगणस्थ शिष्य को योग्य जानकर चतुर्विध संघ सानिध्य में नामकरण करता है और अपने संघ में स्वशिष्य के रूप स्वीकार करता है तथा संघ भी नवीन शिष्य को सहधर्मी के रूप में घोषणा करता है
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नवीन यति के लिए आचार्य प्रवर ने निर्देश किया है कि वह संघ के आचारविचार आदि धर्मानुकूल वचन क्रिया आदि को करें तथा संघ प्रतिकूल वचन, क्रिया एवं प्रवृत्तियों के करने का निषेध किया है अर्थात् न करें । एक खास बात ग्रन्थकार ने आचार्य पद के योग्य मुनि, आचार्य पद प्रतिष्ठा का मुहूर्त तथा आचार्य पद प्रदान करने के सम्बन्ध में सम्पूर्ण योग्य क्रियाओं पर अच्छी तरह भलीभांति प्रकाश डालकर इस ग्रन्थ की विशेषता को और भी अधिक महत्त्पूर्ण बना दिया है । अन्तिम ७८ वे सूत्र में " अज्जाषि होई पिच्छि करा शब्द देकर अजिंका भी पिच्छी को धारण करने वाली होती है ऐसा निर्देश किया है । अर्यिका को भी मुनि के समान पिच्छी धारण करना यह प्रत्येक परिस्थिति में अनिवार्य है यह क्रियासार ग्रन्थ का प्रवाह धारा निरन्तर चला आ रहा है । मूलग्रंथ के संग्रहकर्ता आचार्य गुप्तिगुप्त हैं, जिनके द्वारा विविध संघों की स्थापना धर्म एवं संयम रक्षार्थ हुई थी । इन्हीं ने आचार्य भद्रबाहु स्वामी को नमस्कार करके संयम प्रतिष्ठापना हेतु प्रश्न किया था। जिसका समाधान ८० गाथाओं के रूप में सूत्रबद्ध किया गया है
यति प्रतिष्ठापन के अन्तर्गत ग्रन्थ संग्रहकर्ता आचार्य गुसिगुप्त ने महामह गणधर वलय पूजा, नवग्रहशान्ति, सर्व उपद्रव शान्ति तथा संघ शान्ति हेतु शान्ति वाचन करने का निर्देश दिया है तथा अन्त में संयम स्थापना विधि करने, करवाने वाले को आचार्य प्रवर ने शीघ्र मुक्ति का कारण बतलाकर ग्रन्थ को इति श्री की है ।
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