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भिन्न अर्थात् सुजाति, (म जाति, उसम कुल, ओसवाल-अतिश्यत्वसं राहत योग्य आयु, अंग भंग वा अंगाधिक से अश्रवा अन्य देह सम्बन्धी दोषों से रहित उत्तम देह, धर्मानुकूल जिनमार्गी, उत्तम बुद्धि तथा क्रोधादि विकार से रहित अवस्था ही लिंग ग्रहण की योग्यता को लिए हुए हैं अत: दोक्षाचार्य को धर्म तथा धर्मों के हित के लिए इन सब बातों को ध्यान में रखकर जो जिनदीक्षा का पात्र समझा जाय उसे ही जिनदीक्षा देनी चाहिए अन्यथा अपनी कुस वृद्धि या मोह-लोभादिक के वश होकर नहीं॥
पूर्व काल में भी मेरू और पन्दर दोनों राजकुमार भी भगवान के समवशरण में । जाकर प्रर्थना करते हैं कि
येत्तरूं गुणत्तव तिरैव यामुडै । गोत्तिरं कुलमिवै येरूकु वाळिनि ॥ नोटरूं पिरवि नीर कइलै नींदु नर्। ट्रैप याम् निरूवुरू वेड्रिरिरै जिडा १२०१॥ मे. प. पु.अ.१३ ।
अर्थात् इस प्रकार मन में विचार कर कहने लगे कि गणधरादि मुतियों के अधिपति ! हे स्वामी सुनो | हमारा कुल उच्च है, इसलिये अत्यन्त दुस्तर संसार रूपी समुद्र से पार करने के लिये सेतु रूप मुनिदीक्षा का अनुग्रह करो इस प्रकार भगवान से प्रार्थना की।
सारांश-उपरोक्त दुर्गुणों से रहित तथा योग्य गुण सम्पन्न, महारोग रहित निरोगो है वह जिन दीक्षा धारक होता है अन्यथा नहीं ॥१०॥
संघ बाहाःगायण वायण णचण पमुहं कुकम्मादि जीवणो वाओ। जइ कहव होई साहू सो संघ वाहिरओ ॥११ ।।
अन्वयार्थ-जो (गायण) गाकर (वायण) बजाकर (णच्चण) नाचकर/नृत्यकर (पमुहं ककम्मादि) इत्यादि प्रमुख कुकर्म आदि करके (जीवणो पाओ) जीवन यापन करता है (जइ कहप) यदि किसी तरह (साहू होई)नान साधु भी हो तो (सो) वह श्रमण (संघ वाहिरओ) संघ बाहिर है ॥११॥
अर्थ-जो गाकर, बजाकर, नाचकर इत्यादि कुकर्मादि के द्वारा जीवन यापन करता है । यदि वह जिस किसी तरह साधु भी हो जाता है तो भी वह श्रवण संघ से बाहिरबार है ॥१३॥
विशेष-यहां पर संघ के बाहर कौन ? इस बात को लक्ष्य में रख कर उक्त गाथा का अवतरण हुआ। कहा गया है कि जो यति गायन करके, यंत्र बजाकर, शरीर
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IMITRA