Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 75
________________ अर्थ- प्रतिक्रमणादि सर्व क्रियाओं को यथाक्रमानुसार नित्य ही सम्पूर्ण श्रेष्ठ मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित आचार्य श्रेष्ठ की बन्दना करते हैं और सम्पूर्ण संघ उस सूरि के आज्ञा में होते हैं, यही उसकी विशेष विधि है अर्थात् उम आचार्य के नियंत्रण अथवा आधीनता में सारा संघ होता है। यही संघ का योग्य प्रवृत्ति है ।७६ ॥ विशेष-यहां वन्दना-प्रतिवन्दना के क्रम का उल्लेख करते हुए आचार्य वय क्रिया एवं आज्ञा विशंप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि नवीन प्रतिष्ठापित आचार्य के सम्मुख बर्विध संभ मंदना विधि को पपग्लू लेकर प्रतिकमण, स्तव आदि सम्पूर्ण करणीय क्रियाओं की निष्प्रमाद होकर करते हैं और विशेप सारा संघ नवीन आचार्य श्री की आज्ञा में होता है अथवा प्रतिष्ठापित आचार्य के नियन्त्रमा देख-रेख में होता है। जैसा कि जिनागम में उस्लिखित है कि जब संघ का नायक आचार्य अपने सम्पूर्ण शिष्य मंडली! संघ को यह आज्ञा प्रदान करता है कि जिस प्रकार आज पर्यंत मुझे संघाधीपतिःआन्नायं मान कर मेरी आज्ञा में चलते थे उसी प्रकार आज से मेरी आज्ञा प्रमाण चलने वाले 'अमुक' शिष्यों को आचार्य पद दिया गया है उसकी आज्ञा में तुम सब अपनी सम्पूर्ण क्रियाओं का आचरण/पालन करो। यह आज से तुम्हारा आचार्य है ऐमा पूर्वाचार्य घोषित करता है। अस्तु इसी को ग्रन्थकार ने विधि विशेष कहा है। यह नवीन आचार्य पद योग्य कहा अब नवीन मुनि पद योग्य कुछ कर्तव्य प्रकारान्तर से कहते हैं सुखेनासीनम व्यग्रं सूरि वंदेत् सम्मुखम्। वंदेऽहमिति विज्ञाप्य हस्तमात्रांतरस्थितः ॥६० ।। प्रमृज्य कर्तरी स्पर्शात्माष्टांगान्यवनीमपि । पावर्द्धशय्यायाऽऽनम्य रूपिच्छांजुलिभालक ॥११॥ तदुकांच विगौरवादि दोषेण सपिच्छांजुलि शालिना। सदष्जसूयोऽऽचार्येण कर्तव्यं प्रतिवंदना ॥६०/६१/६२ ।। आ. सा. अर्थात् अनाकुल होकर सुखपूर्वक बैन हुए आचार्य के सन्मुख एक हाथ दूर गवासन से बैठकर, पिच्छी सहित अंजुलि को मस्तक पर रखकर पूर्व में आचार्य को सूचित करें, कि गुरुदेव में वन्दना करता हूं । तदनन्तर गुर्वाज्ञा होने पर अपने आठों अंगों को स्पर्श करें, भूमि आदि को पीछी से संमार्जन करे तथा पिच्छि सहित अंजुलि मस्तक पर रखकर गवासन-गौ आसन से अंगो को झुकाकर भक्ति पूर्वक आचार्य को नमोस्तु MPIRICIAL 79 VIP

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