Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 73
________________ में आरूढ़ होता है । यानि व्रत सहित क्रिया को सुनकर प्रतिक्रमण के द्वारा उपस्थित . होता हुआ वह श्रमण होता है। गुरु के द्वारा उपदेश प्राप्त कर देशना पय हो जाता है। इसी को आचार्यों ने शिक्षाकाल कहा है। दीक्षानन्तरं निश्चय व्यवहार रत्नत्रयस्य परमात्म तत्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्म शास्त्रेषु यदाशिक्षा गृह्णाति स शिक्षाकाल। पं. का/ता. . अर्थात् दीक्षा के बाद निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्म तस्त्र के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की, जब शिक्षा ग्रहण करता है तब यह शिक्षा काल होता है। इस प्रकार वह नवीन शिष्य दीक्षा के अनन्तर गुरु के पापपार्श्व में स्थित होकर गुरु देशना को प्राप्त करता है ।।७४ ॥ सो पढदि सव्य सत्य, दिक्खा विज्जाइ धम्मवत्थं च। णहु जिंददि णहु रूसदि, संघो वि सव्वत्थं १७५ ॥ अन्वयार्थ-(सो) वह आचार्य (सध्वसत्थं) सम्पूर्ण शास्त्रों को ( पढदि) पढ़ता है। (दिक्खा/विजाइ दीक्षा, विद्या आदि (धम्मवत्थं) धर्म वस्तु की (गहुर्णिददि) निन्दा नहीं करता (सध्यस्थ)सर्वत्र (संघोषि) संघ भी (यहु रूसदि) किसी तरह रुष्ट नहीं होता है ॥७५ ॥ अर्थ-वह आचार्य धर्म सिद्धि के लिए सभी शास्त्रों को पढ़ता है, दीक्षा- मुनि पद आदि तथा विद्या-मंत्रादि विधा सम्यग्ज्ञान आदि की धर्म सिसि के लिए निंदाआलोचना नहीं करता है, तो संघ भी उस आचार्य पर किसी भी तरह रुष्ट नहीं होता है ।।७५॥ विशेष-यहां आचार्य प्रवर निर्देश करते हैं कि वह नवीन दीक्षित आचार्य धर्म व्यवहार धर्म एवं निश्चय धर्म, व्यवहार रत्नत्रय धर्म एवं निश्चय रत्नप्रय धर्म, सराग चारिघ एवं पीतराग चारित्र, सामायिक आदि पंच प्रकार के संयम की सिद्धि के लिए सम्पूर्ण धर्म ग्रन्थों एवं धर्म वस्तु का अध्ययन करता है, परन्तु मुनि पद की निन्दा नहीं करता है, अरहंत आदि की निन्दा-अवर्णवाद नहीं करता है । विद्या- केवलज्ञानी की निन्दा दोषारोपण नहीं करता है, जिनवाणी की निंदा नहीं करता है। इस प्रकार संघ, गण, गच्छ, कुल के अनुकूल प्रवृत्ति जब नवीन दीक्षित की होती है तब गण गच्छ आदि भी उस पर किसी भी तरह कुपित नहीं होता है। ये सब अनुकल प्रवृत्ति शिष्यों के धर्म की सिद्धि के लिए ही होती है। कहा है - r

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